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द्वितीय पहिलोट : जैनकुमारसम्भवकार की जीवन वृत्त, कृतियाँ तथा A
जैन काव्य साहित्य की तत्कालीन परिस्थितियाँ एवं प्रेरणाएं,
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कारण मुनियों और गृहस्थ श्रावकों के बीच निकट सम्पर्क होने से जैन संघ में अनेक मतभेद, और आचार-विषयक शिथिलताएं आने लगी। ईसा की प्रारम्भिक शताब्दियों में मूर्ति तथा मन्दिरों का निर्माण श्रावक का प्रधान धर्म बन गया। मुनियों का ध्यान भी ज्ञानाराधना से हटकर मन्दिरों और मूर्तियों की देखभाल में लगने लगा था। वे पूजा और परम्मत के लिए दानादि ग्रहण करने लगे थे। फलतः सातवीं शताब्दी के बाद से जिनप्रतिमा, जिनालय निर्माण और जिनपूजा के महात्म्य पर विशेष रूप से साहित्य निर्माण होने लगा।
ईसा की प्रारम्भिक शताब्दियों में मुनियों के समुदाय कुल गण और शाखाओं में विभक्त थे। जिनमें मुनियों का ही प्रावल्य था पर धीरे-धीरे गृहस्थ श्रावकों के प्रभाव के कारण नये नाम वाले संघ, गण, गच्छ एवं अन्वयों का उदय होने लगा तथा कई गच्छ परम्पराएं चल पड़ी थी। पहले जैन आगम सूत्रों का पठन-पाठन जैन साधुओं के लिए ही नियत थे। पर देशकाल के परिवर्तन के साथ श्रावकों के पठन-पाठन के लिए उनकी रूचि का ध्यान रख आगमिक प्रकरण और औपदेशिक प्रकरणों के साथ नूतन काव्य शैली में पौराणिक महाकाव्य, बहुविध कथा-साहित्य और स्रोतों तथा पूजा-पाठों की रचना होने लगी। पांचवी से दसवीं शताब्दी तक जैन मनीषियों द्वारा ऐसी अनेक विशाल एवं प्रतिनिधि रचनाएं लिखी गयी जो आगे की कृतियों का आधार मानी जा सकती है।
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