________________
द्वितीय परिच्छेद : जैनकुमारसम्भवकार की जीवन वृत्त, कृतियाँ तथा जैन काव्य साहित्य की तत्कालीन परिस्थितियाँ एवं प्रेरणाएं,
अध्याय
सामाजिक परिस्थितियों में
दिगम्बर और श्वेताम्बर के जैन साहित्य के क्षेत्र में
ईसा की ११वीं और १२वीं शताब्दी में देश की राजनीतिक और परिवर्तन के साथ जैनसंघ के उभय सम्प्रदायों आन्तरिक संगठनों में नवीन परिवर्तन हुए जिससे एक नूतन जागरण हुआ। दिगम्बर सम्प्रदाय में तबतक अनेक संघ गण और गच्छ बन चुके थे और उनके अनेक मान्य आचार्य मठाधीश जैसे बन गये थे। और धीरे-धीरे एक नवीन संगठन भट्टारक व महन्त वर्ग के रूप में उदय हो रहा था जो पक्का चैत्यवासी बनने लगा था। इसी तरह श्वेताम्बर सम्प्रदाय चैत्यवास और वसतिवास के विवादस्वरूप अनेकों गणों और गच्छों में विभक्त होने लगा और विभिन्न गच्छ परम्पराएं चलने लगी। गण- गच्छनायकों ने अपने-अपने दल की प्रतिष्ठा के लिए एवं अनुयायियों की संख्या बढ़ाने के लिए विभिन्न प्रदेशों तथा नगरों में विशेष रूप से परिभ्रमण किया। इन लोगों ने अपने विद्या, बल एवं प्रभावदर्शक शक्ति सामर्थ्य से राजकीय वर्ग और धनिक वर्ग को अपनी ओर आकर्षित किया और बढ़ते हुए, शिष्य वर्ग को कार्यक्षम और ज्ञानसमृद्ध बनाने के लिए नाना प्रकार की व्यवस्था की । इसके फलस्वरूप दक्षिण और पश्चिम भारत के अनेक स्थानों में ज्ञानसत्र और शास्त्र भण्डार स्थापित हुए। वहाँ आगम न्याय, साहित्य और व्याकरण आदि विषयों के ज्ञाता विद्वानों की व्यवस्था की गई, स्वाध्यायमण्डल खोले गये तथा अध्यापक और अध्ययनार्थियों के लिए आवश्यक और उपयोगी सामग्री उपलब्ध करायी गई। 'विद्वान् सर्वत्र पूज्यते' इस युक्ति को महत्व देकर जैन
६८