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________________ प्रथम मक्किच : जैनकुमारसम्भव महाकाव्य का महाकाव्यत्व अग्राम्यशब्दमर्थ च सालंकारं सदायम्।। मन्त्रदूतप्रयाराजि नायकाभ्युदयंच यत्। पंचभिः संधिभिर्युक्तं नातिव्यायख्येयमृद्धिमत्।। चतुवर्गामिधानेऽपि भूय सावोपदेशकृत। युक्तं लोकस्वभावेन रसेश्च सकलेः पृथक्।। नायकं प्रागुपन्यस्त वंशवीर्य- श्रुतादिभिः। न तस्यैव वधं ब्रूयादन्योत्कर्षाभिधित्सिया।। १/२५ आचार्य भामह- काव्यालंकार- १/२२-२५ ११९. सर्गवन्धो महाकाव्यमुच्यते तस्य लक्षणम्। आशीर्नमास्क्रिया वस्तुनिर्देशो वापि तन्मुखम्।। १/१४ १२०. इतिहास कयोद्भूतमितराद्वा तदाश्रयम्। चतुर्वर्गफलोपेन्तं चतुरोदात्त नायकम्।। १/१५ नागरार्णव- शैलर्तु- चन्द्रौकदियः वर्णनैः। उद्यान- ललित- क्रीड़ा भधुपान रतोत्सवैः। १/१६ विप्रलम्भेविवाहैश्च कुमारोदय- वर्णनैः। मन्त्र-दूत-प्रयाणाजि- नायकाश्युदयैरपि।। १।१७।। अलंकृतममसंक्षिप्तं- रसभाव-निरन्तरम्। सर्गनतिविष्तीर्णैः श्रव्यवृन्तेः सुसन्धिभिः।। १/१८।। सर्वत्र भिन्न-हन्तान्तरुपतेतं लोकरज्जकम्। काव्यं कल्पान्तरस्थायि जायते सदकंकृति।। १/१९॥-दण्डी काव्यादर्श-१/१४/१९ १२१. अग्निपुराण, अध्याय- ३३७/२४-३४
SR No.010493
Book TitleJain Kumar sambhava ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShyam Bahadur Dixit
PublisherIlahabad University
Publication Year2002
Total Pages298
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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