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प्रथम अहिलेद: जैनकुमारसम्भव महाकाव्य का महाकाव्यत्व)
कोपपङ्ककलुषा नृषु शेषा, योषितः क्षतजशोषजलूकाः।।१३२ अर्थात जो स्त्री समर्थ हाते हुए भी अपने को पति की दासी समझती है वह ही एकमात्र पत्नी कहलाने की अधिकारिणी है, शेष स्त्रियाँ तो अपने पतियों के रक्त को चूसने वाली जोंक की तरह हैं।
अपने देश (भारत) की विशिष्टता एवं सौन्दर्य का वर्णन कवि ने अपनी अलौकिक कवि शक्ति द्वारा इस प्रकार निरुपित किया है
इहापि वर्ष समवाप्य भारतं बभार तं हर्षभरं पुरन्दरः।
घनोदयोऽलं घनवमलंघनं-श्रमं शमं प्राययति स्मयोऽद्भुतम्।।१३३ अर्थात् स्वर्ग से धरती तक आने में इन्द्र का सारा श्रम भारत (देश) में आते ही दूर हो गया और वे बहुत प्रसन्न हुए। .
पुनः प्रभु ऋषभदेव के प्रताप के समक्ष इन्द्र की असमर्थता को सुरुचिपूर्ण ढंग से इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है।
तव हृदि निवसामीत्युक्तिरीशे न योग्या मम हृदि निवसत्वं नेति नेता नियम्यः। न विभुरूभयथाहं भाषितुं तद्यहं,
मयिकरूकरुणार्हे स्वात्मनैव प्रसादम्।।१३४ अर्थात् में आपके हृदय में निवास करता हूँ, यह उक्ति आपके योग्य नहीं हैं, आप मेरे हृदय में निवास करते है, ऐसा सम्भव नहीं है, क्योंकि आप समस्त संसार के नेता है। इस प्रकार उभय विध कहने में असमर्थ मुझ पर हे करुणाकर कृपा कीजिए और अपना जानकर प्रसन्न होइए। प्रभु