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________________ प्रथम : जैनकुमारसम्भव महाकाव्य का महाकाव्यत्व/ पड़ती थी । १२८ कवि मणियों के प्रकाश के सम्बन्ध में पुनः कहता है कि इस नगरी में कृष्ण पक्ष नहीं रहता है, सदा शुक्ल पक्ष का निवास है इस कारण न तो अभिसारिकाएं यहाँ अभिसार ही कर पाती है और न ही चोर चोरी | रत्नोकसां रूग् निराकरेण राकी, कृतासुसर्वास्वापि शर्वरीषु । सिद्धं न मन्त्रा इव दुःप्रयुक्ता, यत्राभिलाषा यथुरित्वरीणाम् १२९ कवि ने ऋषभदेव के अङ्ग प्रत्यङ्ग का निरुपण इस प्रकार किया हैपद्मानि जित्वा विहितस्य दृग्भ्यां सदा स्वदासी ननु पद्मवासा । किमन्यथा सावसधानि याति, तत्प्रेरिताप्रेमजुषामरवेदम् ।। १३० ऋषभदेव के नेत्रों ने पद्मश्री (लक्ष्मी) को जीत लिया था । अतः वह दसी वन गयी थी । उनके नेत्रों से प्रेरित होकर लक्ष्मी खेदरहित निवास को प्राप्त हो रही थी। अभिप्राय यह है कि ऋषभदेव की दृष्टि से ही भक्त लोगों के दुःख दारिद्रय और दुर्भाग्य आदि दोष (कठर) दूर हो जाते थे। अन्तरेण पुरुषं न हि नारी, तां विना न पुरुषोऽपि विभाति । पादपेन रूचिमंचति शाखा, शाखयेवः सकलः किलसोऽपि९३१ अर्थात् जिस प्रकार शाखा वृक्ष से और वृक्ष शाखा से सुशोभित होते है, उसी प्रकार पुरुष, नारी से और नारी, पुरुष से सुशोभित होती है अभिप्राय यह है कि एक दूसरे के विना वे सुशोभित नही हो सकते। इस प्रकार पतिव्रत और कुलटा नारी के मध्य अन्तर बताते है या प्रभुष्णुरपि भर्तरि दासी - भावमावहति सा खलु कान्ता । ४५
SR No.010493
Book TitleJain Kumar sambhava ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShyam Bahadur Dixit
PublisherIlahabad University
Publication Year2002
Total Pages298
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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