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________________ सप्तम् परिरपेट : श्री जयशेरवरसूरि कृत जैनकुमारसम्भव एवं महाकवि कालिदास कृत कुमारसम्भव का तुलनात्मक अध्ययन " टिपाल कालिदास युगान्त कालाग्निमिवाग्निमिवाविषह्यं • परिच्युतं मन्मथरङ्गभङ्गात्। रतान्तरेतः स हिरण्यरेतस्यधोर्ध्वरेतास्तदमोघमाघात्।। अर्थात् कामक्रीड़ा के भंग होने के कारण अपने वीर्य को ऊपर खींचने में समर्थ शंकर जी ने संभोग के अन्त में निकले हुए, प्रलयकाल की अग्नि के समान असहनीय तथा उत्पादन में अचूक वीर्य अग्नि को दे दिया और अग्नि ने इन्द्र की सलाह पर उस वीर्य को गंगा जी को सौंप दिया गङ्गावारिणि कल्याणकारिणि श्रमहारिणि। समग्नो निवृत्तिं प्राप पुष्पभारिणि तारिणि।। तत्र माहेश्वरं धाम सञ्चक्राम हविर्भुजः। गङ्गायामुत्तरङ्गायामन्तस्तापविपद्धृतिः।।२८ गङ्गाजी में स्नान करने आयी छ: कृत्तिकाओं के गर्भ में वह वीर्य प्रवेश कर गया और कृत्तिकाओं ने अपने-अपने पतियों के तथा लोक-लाज के भय से उसे सरपत के जंगल में छोड़ दिया, जहाँ वह वीर्य कुमार के रूप में अवतरित होकर अपने तेज से ब्रह्म को भी चुनौती देने लगा जगच्चक्षुषि चण्डांशी किञ्चिदभ्युदयोन्मुख। जग्मुः षटकृत्तिका माघे मासि स्नातुं सुरापगा।।९ कृतानुरेतसो रेवस्तासामभि कलेवरम्। २३१
SR No.010493
Book TitleJain Kumar sambhava ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShyam Bahadur Dixit
PublisherIlahabad University
Publication Year2002
Total Pages298
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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