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सप्तम् परिच्छेद्र : श्री जयशेरवरसूरि कृत जैनकुमारसम्भव एवं महाकवि
कालिदास कृत कुमारसम्भव का तुलनात्मक अध्ययन
जैनकुमारसम्भव की कथावस्तु अति संक्षिप्त है जो दो या तीन सर्गों की सामग्री मात्र है या फिर अधिक से अधिक पाँच या छः सर्गो की। छठे सर्ग के बाद काव्य को शेष पाँच सर्गो में घसीटा गया है। यह अवांछनीय विस्तार यद्यपि कवि की वर्णनाशक्ति की महत्ता है तथापि कथानक की अन्विति छिन्न हो गयी है और काव्य का अन्त अतीव आकस्मिक हुआ है। सुमङ्गला द्वारा देखे गये स्वप्नों का ऋषभदेव द्वारा सोदाहरण फल विवेचन के पश्चात् इन्द्र द्वारा उस कथन की पुनः पुष्टि एकदम व्यर्थ सी लगती है। बेहतर होता यदि यह काव्य आठ या नव सर्गों में पूरा कर दिया गया होता। ऐसे में यह काव्य रसिकों के लिए अधिक हृदयावर्जक हो जाता।
जैन महाकाव्यों तथा संस्कृत महाकाव्यों की मूल प्रवृत्तियों का तुलनात्मक अध्ययन के पश्चात् अब हम संस्कृत साहित्य के देदीप्यमान नक्षत्र महाकवि कालिदास कृत कुमारसम्भव और जैन महाकवियों में एक महत्त्वपूर्ण स्थान रखने वाले श्री जयशेखर सूरि कृत जैनकुमारसम्भव महाकाव्य का तुलनात्मक अध्ययन · विस्तार पूर्वक करेंगे।
जिसमें भाषा, शैली, गुण, रीति, वृत्ति, रस, छन्द, अलङ्कार, प्रकृति वर्णन इत्यादि संदर्भो में अवलोकन करना आवश्यक होगा।
(ख) कविता-कामिनी-कान्त कालिदास न केवल संस्कृत-वाङ्मय के अपितु
विश्व-वाङ्मय के मुकुटालङ्कार है उनकी कविता की समस्त विशेषताओं का उल्लेख करते हुए जर्मन कवि गेटे का विचार इस प्रकार है
"संस्कृत साहित्य के उपवन में कालिदास का समागम वसन्त दूत के