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पचम
: जैनकुमारसम्भव मे रस, छन्द, अलङ्कार, गुण एवं दोष
प्रकार यह कहा जा सकता है कि इन सभी जैनाचार्यो ने पूर्वाचार्यो द्वारा मान्य किसी एक विचारधारा को स्वीकार कर, शेष का युक्तिपूर्वक खण्डन किया है।
इस तरह यहाँ गुणों के सम्बन्ध में मान्य अन्यान्य विद्वानों के विचारों के साथ जैनाचार्यों द्वारा मान्य विचारों के उल्लेख के उपरान्त जयशेखरसूरि कृत जैनकुमार सम्भव महाकाव्य में प्रयुक्त गुणों के सम्बन्ध में विवेचन इस प्रकार किया जा रहा है
जयशेखरसूरि ने इस महाकाव्य में काव्यशास्त्र में मान्य प्रसाद तथा माधुर्यगुणों का यथास्थान सुन्दर विवरण प्रस्तुत किया है। इसके अनेक प्रसङ्गों में प्रसाद गुण युक्त वैदर्भी रीति का प्रयोग दृष्टिगत होता है विशेषकर सुमंगला के वासगृह का वर्णन ! तथा पञ्चम सर्ग में वर-वधू को दिये गये उपदेश प्रसाद गुण की सरसता तथा स्वाभाविकता से परिपूर्ण है, विवाहोपरान्त शिक्षा का यह अंश उल्लेखनीय है
अन्तरेण पुरुषं नहि नारी, तां विना न पुरुषोऽपि विभाति । पादपेन रुचिमञ्चति शाखा, शाखयैव सकलः किल सोऽपि । । १३० योषितां रतिरलं न दुकूले, नापि हेम्नि न च सन्मणिजाले । अन्तरंग इह यः पतिरंगः सोऽदसीयहृदि निश्चलकोशः । । १३१
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या प्रभुष्णुरपि भर्तरिदासी - भावमावहति सा खलु कान्ता । कोप पङ्क कलुषा नृषुशेषा, योषितः क्षतजशोषजलूका ।। १३२
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