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पञ्चम सरितोद : जैनकुमारसम्भव में रस, छन्द, अलङ्कार, गुण एवं दोष
र, गुण एवं दो
५. निरुक्त- निर्वचन। यथा
उन दोनों को मै इस प्रकार समझता हूँ, किन्तु आप दोषाकर हैं।
६. युक्ति- विशिष्टता। यथा
तुम नवीन जलद हो, जो सोने की वर्षा करते है।
७. कार्य- फलकथन। यथा____ रात्रिरुपी स्त्री से विशिष्ट यह चन्द्रमा (आप दोनों को) अच्छेद (संयोग) के लिए उदित हो रहा है।
८. प्रसिद्धि- प्रसिद्ध वस्तुओं में तुल्यता का कथन- यथा
समुद्र जल से महान है और आप वल से महान हैं।
इस प्रकार इस सम्पूर्ण विवेचन से स्पष्ट होता है कि इन सभी जैनाचार्यों ने अलङ्कार शास्त्र की परम्परा का अक्षुण्ण रूप से निर्वाह करते हुए अपनी शैली में गुण स्वरूप आदि विषयों पर विवेचन प्रस्तुत किया है। आचार्य हेमचन्द्र ने जो अतिरिक्त पांच काव्यगुणों का उल्लेख पूर्वक खण्डन किया है, वह अन्य किसी आचार्य द्वारा निर्दिष्ट न किये जाने के कारण उल्लेखनीय है। आचार्य वाग्भट प्रथम भावदेवसूरि- ये जैनाचार्य भरत तथा वामन आदि के अनुयायी हैं, क्योंकि इन्होंने दस गुणों का समर्थन किया है। आचार्य हेमचन्द्र, नरेन्द्रप्रभसूरि व वाग्भट द्वितीय ये तीन जैनाचार्य आनन्दवर्धन व मम्मटादि के समर्थक हैं क्योंकि इन्होंने माधुर्यादि तीन गुणों को ही स्वीकार किया है तथा शेष का इन्हीं में अन्तर्भाव किया है। इस