SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 158
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पञ्चम अडिछेद : जैनकुमारसम्भव में रस, छन्द, अलवार, गुण एवं दोष (ii) अर्थश्लेष "श्लेषः स वाक्ये एकस्मिन् यत्रानेकार्थता भवेत" जहाँ पर एक ही वाक्य में एक पद के अनेक अर्थ होते हैं वहाँ अर्थश्लेष अलंकार होता सुमंगला की सखियों की नृत्यमुद्राओं में श्लेष सहज रूप में परिलक्षित होता है। यथा स्त्रुश्रुताक्षरपथानुसारिणी, ज्ञात संमत कृताङ्गिकक्रिया। आत्मकर्मकलनापटुर्जगौ, कापि नृत्यनिरता स्वमार्हतम्।।३ इस प्रकार शब्दालङ्कारों में कवि ने अनुप्रास और यमक का अत्यधिक प्रयोग किया है और दोनों ही अलङ्कार काव्य में किसी न किसी रूप में व्याप्त है। ३. उपमा अलङ्कार अर्थालङ्कारों में उपमा कवि का प्रिय अलङ्कार है। उपमा वर्ण्य भाव को प्रत्यक्ष कर देती है। उपमा का लक्षण इस प्रकार है "साधर्म्यमुपमा भेदे " उपमान तथा उपमेय का भेद होने पर उनके साधर्म्य का वर्णन उपमा कहलाता है। उपमा के पूर्णा और लुप्ता दो भेद हैं। १४४
SR No.010493
Book TitleJain Kumar sambhava ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShyam Bahadur Dixit
PublisherIlahabad University
Publication Year2002
Total Pages298
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy