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________________ ३० सम्यगनुवृत्तत्वात् । अस्ति भाति नियत्वेन सच्चिदानन्द रूपेणान्वयात्, नामरूपयोः कार्यरूपत्वाद् । प्रकृतेरपि स्वमते तदंशत्वात् अज्ञानाद् परिच्छेदाप्रियत्वे । ज्ञानेन बाधदर्शनात् । नानात्वं त्वैच्छिकमेव, जडजीवान्तर्यामिष्वेवैककांश प्राकट्यात् । कयमेवमिति चेत्, न, सद्रूपे घट रूप क्रियाष्विव तारतम्येनाविर्भाववज्जडेऽपि भानत्वादि प्रतीतेः तारतम्ये नाविर्भावोंगीकर्तव्यः, भगवदिच्छाया नियामकत्वात् । ___ तु शब्द पूर्वपक्ष का निवारक है । ब्रह्म की निमित्त कारणता तो श्रुति से सिद्ध है ही, जो काणादादि मत उस पर संदेह करते भी हैं, सूत्रकार आगे उसका निराकरण करेंगे । वह ब्रह्म ही समवायी कारण है, क्योंकि जगत में ब्रह्म अनागन्तुक रूप से (पट में तन्तु के समान) अनुस्यूत है। [पट में तो तन्तु अभिव्यक्त है, जगत में ब्रह्म की अभिव्यक्ति कहाँ है ? इसका उत्तर देते हैं-] जगत में जो कुछ भी अस्तित्व, प्रकाश और प्रियता है, वह परमात्मा के सच्चिदानन्द रूप से ही मिश्रित है, इसी से वह अभिव्यक्त है । नाम और रूप का कार्य के रूप से अन्वय होता है [अर्थात् कार्य रूप जगत में परमात्मा नाम और रूप से अनुस्यूत है, जैसा कि-"त्रयं वा इदं नाम रूपं कर्म च", "अनेन जीवात्मनाऽनुप्रविश्य नाम रूपे व्याकरवाणि" इत्यादि से स्पष्ट है । सूत्रकार के मत से प्रकृति भी ब्रह्म का अश ही हैं (सत्त्वरजस्तम रूप जगत् की प्रक्रिया प्राकृत है इसलिए जगत को प्रकृति में अनुस्यूत कहा जा सकता है। पर प्रकृति भी ब्रह्म का ही अंश है, जैसा कि भागवत एकादश स्कंध में उल्लेख है-"प्रकृतिहि अस्योपादानमाधारः पुरुषः परः सतोऽभिव्यंजक: कालो ब्रह्म तत् त्रितयं त्वहम्" इत्यादि)। [संसार में जो अप्रिय अर्थात् दुःख हैं उसे ब्रह्म का कैसे मान सकते हैं ? उसे तो प्राकृत ही मानना पड़ेगा, उसका उत्तर देते हैं-] दुःख और अंप्रियता में अज्ञान ही कारण है [अर्थात् प्रज्ञान से मोहित हमारी बुद्धि संकुचित हो गई है इसलिए हमें दुःख होता है], ब्रह्म सम्बन्धी ज्ञान हो जाने पर दुःख का बाध भी देखा जाता है। जमत की जो अनेकता है वह भी ऐच्छिक ही है ("एकोऽहं बहु स्याम्" ऐसी अनेक होने की परमात्मा की इच्छा से ही जगत की अनेकता है) । जड, जीव और अन्तर्यामी तत्त्वों में एक-एक अंश से ब्रह्म प्रकट है इससे ऐच्छिक अनेकता की बात सिद्ध होती है [अर्थात् जड में सदंश, जीव में चिदंश तथा अंतर में प्रानंदांश का प्राकट्य है । एक ब्रह्म अनेक कैसे हो सकती हैं ? यह नहीं कह सकते, जैसे कि घट के रूप और क्रियाओं में तारतम्यानुसार आविर्भाव होता है।
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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