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________________ ३ प्रधिकरण तत्रतत् स्यात्, तत्र किं समवायि निमित्तं कर्तृवा ? किमतो यद्यवम्, एवमेतत् स्यात्, यद्य कमेव स्यात् तदा क्रियाज्ञानशक्त योनिरतिशयत्वं भज्येत, मृदादि साधारण्यं च स्यात्, मतान्तरवत् । कथमेवं संदेहो यावता यतो वा इमानीत्यादिभ्यो निःसंदेह श्रवणात् । एवं हि सः । पंचमी श्रूयते यत इति, पंचम्यास्तसिरिति, प्रात्मन इत्यपि पंचमी, निमित्तत्वे न संदेहः, पंचम्या निमित्तत्व कथनात् । उपादानत्वे न संदेहः, कर्तृत्वे च वाचकाश्रवणात् कल्पनायां प्रमाणाभावात् । समवायिस्वे पुनः सुतरां संदेहः । एवं प्राप्त पाह विचारणीय यह है कि ब्रह्म कौन सा कारण है-समवायि, निमित्त या कत्तुं ? इनमें से कोई एक कारण मान लिया जाय तो (अर्थात् केवल समवयि कारण मान लिया जाय तो) परमात्मा का श्रुति में जो यह माहात्म्य “परास्य शक्तिविविधैव श्रूयते स्वाभाविकी ज्ञान बल क्रिया च" है, वह मिथ्या हो जायगा, परमात्मा की ज्ञान और क्रिया शक्ति की महत्ता समाप्त हो जायगी, साथ ही वह मिट्टी की तरह एक साधारण वस्तु हो जायगा (मिट्टी घर की समवायी कारण होती है, वैसे ही ब्रह्म भी हो जायगा)। नैयायिकों के मत की तरह वेदांत मत भी हो जायगा । “यतो वा इमानि" इत्यादि श्रुति में जब स्पष्ट रूप से ब्रह्म की कारणता बतला दी गई तब संदेह किया ही क्यों जाय ? संदेह तो सूत्र में किए गए पंचमी विभक्ति के प्रयोग से होता है-पंचमी के प्रयोग से निमित्त कारणता तो सिद्ध हो रही है, उपादान और कर्तृत्व का बोध नहीं हो रहा है, उन्हीं. के विषय में संदेह हो रहा है, उनका वाचक कोई श्रुति का प्रमाण वाक्य भी नहीं मिलता, प्रमाण के अभाव में निराधार कल्पना करना भी कठिन है । और समवायी कारण मात्र मानने में संदेह होना स्वाभाविक ही है (समवायी कारण मात्र मानने से सांख्य मत की तरह ब्रह्म विकृत हो जायगा) इस संशय पर सूत्र प्रस्तुत करते हैंतत्तुं समन्वयात् ।१।१।३॥ . - तु शब्दः पूर्वपक्ष व्यावृत्त्यर्थः । निमित्तत्वस्य श्रुति सिद्धत्वाद् मतान्तर निराकरणत्वेनाने वक्ष्यते । तद् ब्रह्म व समवायि कारणं, कुतः ? समन्वयात्,
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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