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भानत्व प्रादि की प्रतीति में भी तारतम्यानुसार ही आविर्भाव होता है । जड आदि में जो सत् आदि का आविर्भाव होता है वह भगवदिच्छा से ही होता है, वही इन सबके नियामक हैं ।
ननु साधारण्येन सर्वजगत् प्रति परमाण्वादीनामन्वयः संभवति । एकस्मिन्ननुस्यूते संभवत्यनेक कल्पनाया अन्याय्यत्वात् । लोके कर्तृ विशेषवत् उपादान विशेष ग्रहणेऽपि न ब्रह्मरिण व्यभिचार:, अलीक प्रतीतेऽस्तित्वादि प्रतीतावपि सम्यगन्वयाभावान्न कार्यत्वव्यभिचारी । तस्माद् ब्रह्मण एव समवायित्वम् । एतत् सर्वं श्रुतिरेवाह - " स श्रात्मानं स्वयमकुरुत" इति । निमित्तत्वन्तु स्पष्टमेव सवंवादि सम्मतम् ।
[उक्त मत पर समवायिकारण- परमाणुसमन्वयवादी शंका करते हैं--] साधारणतः तो समस्त जगत में परमाणुत्रों का समन्वय संभव नहीं है ? इसका उत्तर देते हैं- पर एक ही परब्रह्म में समस्त जगत की अनुस्यूति संभव है ("तत्सृष्ट्वा तदेवानु प्राविशत् " श्रुति में इसका उल्लेख है) । यदि अनेक कारणों की कस्पना करेंगे तो ब्रह्म अनेक हो जायगा, जो कि न्यायो - चित न होगा । जैसे कि लोक में कर्त्ता विशेष कुम्भकार उपादान के सहयोग से पात्र आदि का निर्माण करता है, फिर भी एकमात्र वही पात्रों का निर्माता कहलाता है, वैसे ही ब्रह्म भी जगत् का एकमात्र निर्माता है । स्वप्नावस्था में जो अस्तित्व आदि की मिथ्या प्रतीति होती है उसमें अखण्ड प्रतीति न होने से (अर्थात् जागते ही उसका बाध हो जाने से) कार्यता और व्यभिचार का प्रश्न ही नहीं उठता। इससे निश्चित होता है कि ब्रह्म ही समवायी कारण है, ऐसा श्रुति का भी मत है - "स आत्मानं स्वयमकुरुत" इत्यादि । ब्रह्म कीनिमित्त कारणता तो स्पष्ट ही है-करणाद आदि सर्वसम्मत है ।
केचिदत्र शास्त्रयोनित्व पूर्वपक्ष निराकरणाय " तत्तु समन्वयात्" इति नियोजयन्ति तत् पूर्वपक्ष सिद्धान्तयोद्वयोरप्यसंगतत्वादुपेक्ष्यम् । तथाहि जैमिनिर्धर्मजिज्ञासामेव प्रतिज्ञाय तत्प्रतिपादकस्य पूर्व कांडस्य समन्वयमाह । अवान्तर वाक्यानां प्रकार शेषत्वात् । न च सर्वस्मिन् वेदे धर्म एव जिज्ञास्यः, तद्गुरुणैव व्यासेन ब्रह्मजिज्ञासायाः प्रतिज्ञातत्वात् । संदेह मात्र वारकत्वाज्जिज्ञासयोः, न त्वलौकिकार्थं साधकत्वम्, तथा सति वेदानामन्याधीनत्वेनाप्रामाण्यं स्यात् । वेदजिज्ञासेत्येवोक्तं स्यात् । किं च