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________________ · · शास्त्रे योनिः शास्त्रयोनिः, शास्त्रोक्त कारणत्वादित्यर्थः। शास्तीति शास्त्र वेदः । सामान्यग्रहणं पूर्वकाण्डे पूर्व सृष्टिवाक्यानां संग्रहार्थम् । यथास्येव कारणत्वं, नान्यस्य, तथोपरिष्टाद् वक्ष्यामः । मतान्तरवज्जन्मादीनां बाविकारित्वं किन्त्वाविर्भावतिरोभावावेव, तथोत्तरत्र वक्ष्यते तदनन्यत्वाशिकरणे। नामलीलाया अपि न पृथङ निरूपणं प्रपंचमध्यपातात् । केचित् पृथग् रूपनाम प्रपंच कर्तृत्वं योग विभागेन प्रतिज्ञाय समन्वयादि सूत्रेष्वेव हेतून् वर्णयन्ति । अन्वयसिद्ध्यर्थं च अतति व्याप्नोतीत्यत् । शास्त्रे योनि-वं प्राप्तं तदिति । नैतत् सूत्रकार सम्मतमिति प्रतिभाति । तस्मात् सर्वज्ञत्व सर्वशक्तिमत्त्वं च सिद्ध जगत् कर्तृत्वेन । एकमात्र शास्त्र ही ब्रह्म के अस्तित्व का प्रमाण है, शास्त्र में ही जगतकर्ता का प्रतिपादन है, इसलिए वह शास्त्रयोनि है । जो शासन करे उसे शास्त्र कहते हैं. वेद ही ऐसा शास्त्रहै (शब्द तीन प्रकार से बोध कराता है, प्रभुसम्मित, सुहृतसम्मित और 'कान्तास म्मित, वेद प्रभुसम्मित वाक्य हैं इसलिए उनकी आज्ञा कभी भंग नही की जा सकती, यही उक्त कथन का तात्पर्य है)। वेद के संपूर्ण अंगों को मिलाकर ही शास्त्र मानना चाहिए, इसीलिए सामान्य शास्त्र शब्द का प्रयोग किया गया है । वेद के पूर्व भाग में भी. सृष्टि वाक्यों का संकलन है इसलिए उपनिषद्-योनि न कहकर सामान्य शास्त्र शब्द का प्रयोग किया गया है । पूर्वकाण्ड में जो प्रजापति की सृष्टि का वर्णन है, वह भी ब्रह्म का ही उल्लेख है, इसका विवेचन अपगे करेंगे। सांख्य. आदि.मतों की तरह जन्म- प्रादि की विकृति सूत्रकार को अभिमत नहीं है, उनके मतानुसार सृष्टि का आविर्भाव विरोभाव होता रहता है, इसको वे आगे (द्वितीय अध्याय में) दिखलावेंगे । नाम और लीला का भी प्रापंचिक रूप में ही अन्तर्भाव हो जाता है, इसलिए उसका पृथक् निरूपण नहीं किया गया । कोई, रूप प्रपंच कर्तुत्व बोधक तथा नाम प्रपंच कर्तृत्व.बोधक दो विभिन्न (जन्मानस्य यतः और शास्त्रयोनित्वात्) सूत्रों का हेतु समन्वयादि सूत्रों में बतलाते हैं और अन्वय सिद्धि के लिए "अतति व्याप्नोति इति अतु" अर्थात् शास्त्र में योनित्व प्राप्त है जिसको वह शास्त्रयोनित्वात् ऐसा प्रथमान्त पद का निरूपण करते हैं । पर ऐसा अर्थ सूत्रकार सम्मत नहीं प्रतीत होता । शास्त्र प्रतिपाद्यं स्वतन्त्र जगतकत्र्तृत्व के लक्षण में ब्रह्म की सर्वज्ञता और सर्वशक्तिमत्ता सिद्ध होती है।
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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