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________________ २५ ननु च सवों वेदो ब्रह्मणो जगत्कर्तृत्वे मानम् । तपोयज्ञादि युक्त प्रजापति प्रभृतीनामेव जगत्कारणत्वस्य पूर्व काण्डे तत्तदुपाख्यानेष्ववगम्यमानत्वात् । न चावान्तर कारण वम्, परस्याश्रवणात् । उत्तरकाण्डे तु द्वयप्रतिपादनाद विरोधः संदेहश्च । मीमांसाया संदेह निवारकत्वे अप्येकांशस्याप्रामाण्यं स्यात्, उभय समर्थ ने शास्त्र वैफल्यं वा, वेद प्रामाण्यादेव तत्सिद्धः, बाधितार्थवचनं वेदे नास्तीत्यवोचाम । पूर्व मीमांसक कहते हैं कि संपूर्ण वेद ब्रह्म का जगत् कर्तृत्व नहीं मानते, वेद के पूर्व भाग में प्रजापति क्षेत्रज्ञ आदि उपाख्यानों से तप यज्ञ आदि के द्वारा, प्रजापति क्षेत्रज्ञ प्रकृति आदि की ही जगत्कारणता की पुष्टि होती है । अवान्तर कारण के रूप में प्रजापति का उल्लेख नहीं है, क्योंकि उस प्रकरण में किसी अन्य की कारणता का उल्लेख नहीं है। उत्तरकाण्ड में तो कत्र्तृत्व और अकत्तृत्व दोनों का वर्णन किया गया है, जो कि एक प्रकार से विरोधाभास ही है, दोनों में किसे प्रामाणिक माना जाय, ऐसा संदेह होता है। संदेह निवृत्त करने पर भी उभय प्रतिपादन का एकांश अप्रामाणिक हो जाता है । दोनों का समर्थन करने में उस शास्त्र की विफलता सिद्ध होती है। इसलिए वेद प्रामाण्य से ही उसकी सिद्धि होगी । वेद में बाधितार्थ वचनों का अभाव है। किं च वेदांताः किं वेदशेषाः, वेदा वा । नाद्यः, अनुपयोगात्, अनारम्भाधीतत्वेन तदुपयोगित्वे पूर्वकाण्ड विचारेणैव गतार्थत्वं विद्याप्रवेशश्च । न द्वितीयः, यज्ञाप्रतिपादनात् मंत्रब्राह्मणत्वाभावाच्च । तस्माद् वेदोषरा वेदांता इति । तेषां किं स्यात् ? इति चेत् ।। ___ और फिर, वेदांत का मतलब क्या समझा जाय, वेद का शेष भाग या वेद ? वेदशेष तो कहा नहीं जा सकता, क्योंकि वैसा कहने का प्रयोजन क्या होगा ? जैसे कि “यस्य पर्णमयी जुहूर्भवति स पापं श्लोकं समश्नुते" इत्यादि वाक्य ऋतुशेषता का बोधक है, वैसे ही वेदांत वाक्यों का पाठ तो है नहीं जिससे ऋतुशेषता ज्ञात हो सके और वे वेद-शेष कहे जावें, उन वाक्यों की उपयोगिता तो तभी है जब कि उनमें पूर्व काण्ड के विषयों पर विचार किया गया हो [अर्थात् वेदांत वाक्यों की कर्मान रूप से ही उपयोगिता है, यदि वे कर्माङ्ग नहीं हैं वो निरर्थक हैं] । उन वेदांतों की स्मृति और चतुर्दश
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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