SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 696
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ६१३ ) परजैमिनिर्मुख्यत्वात् ।४।३।१३॥ "स एतान् ब्रह्म गमयति" इत्यत्र ब्रह्मपदेन परमेव ब्रह्मोच्यते इति जैमिनिराचार्यो मनुते । कुतः, मुख्यत्वात् । वृहत्वादिधर्मविशिष्टं हि ब्रह्मपदेनोच्यते । तावत्परमेव ब्रह्म भवतीति मुख्या वृत्तिब्रह्मपदस्य परस्मिन्ने वान्यत्र गौणी । तथा च मुख्यगौणयोर्मध्ये मुख्यस्यैव बलिष्ठत्वात् तथा । “स एतान् ब्रह्मगमयति" वाक्य में ब्रह्मपद से परमब्रह्म का ही उल्लेख किया गया है ऐसा जैमिनि आचार्य मानते हैं । वृहत्व आदि विशिष्ट धर्म वाले को ही ब्रह्मपद से कहा गया है वैसा धर्म वाला परमब्रह्म ही होता है, इसलिए ब्रह्मपद की मुख्यावृत्ति परम ब्रह्म के संबंध में ही है, अन्यत्र गौणोवृत्ति है। मुख्य और गौण के बीच में मुख्य ही बलवान होती है। दर्शनाच्च ।४।३।१४।। "स एनं देवयानं पन्थानमापद्याग्निलोकमागच्छति स वायुलोकं स वरुणलोकं स इन्द्रलोकं स प्रजापतिलोकं स ब्रह्मलोकं" इति कौशीतकिश्रुतेरग्न्यादिलोक प्राप्तिवदविशेषेणैव प्रजापतिलोकप्राप्त्यनन्तरं ब्रह्मलोकप्राप्ति दर्शयति । न हि तत्र ब्रह्मलोक शब्देन कार्यः स उच्यत इति वक्तुं शक्यम् । पार्थक्येन प्रजापति लोकस्योक्तत्वात् । "वह इस देवयान पथ पर आरूढ़ होकर •अग्निलोक में आता है, वह वायुलोक, वरुणलोक, इन्द्रलोक, प्रजापतिलोक से ब्रह्मलोक जाता है" इस कौषीतकि श्रुति से अग्नि आदि लोक प्राप्ति की तरह सामान्य रूप से प्रजापति लोक के बाद ब्रह्म लोक प्राप्ति की चर्चा की गई है। इसमें ब्रह्मलोक शब्द से कार्य ब्रह्म का उल्लेख है, ऐसा नहीं कह सकते, क्योंकि-प्रजापति लोक का स्पष्ट पृथक् वर्णन किया गया है । अपरं च "ये चेमेऽरण्ये श्रद्धातपइत्युपासतेतेऽषिमभिसंभवंति" इति छांदोग्यश्रुतिविषयीकृत्य, "ह्यचिरादिनातत्प्रथितेः" इत्युपक्रमआचार्येण कृतोऽन्यत्राचिः शब्दस्याभावात् तत्र चान्ते ब्रह्मगमयतीत्युच्यते । तथा च छांदोग्येऽनुक्तानामन्यत्रोक्तानां लोकानां मार्गक्यसिद्धयर्थ तत्रैव सन्निवेशो, वायुमब्दात् तडितोऽधिदरुणो, वरुणाच्चाधीन्द्रप्रजापती, इत्यन्तेनोक्तः । एवं सति आदावचिपं, ततोऽहस्ततः सितपक्षं, ततउदगयनं ततः संवत्सरं, ततो वायु, ततो देवलोकं, तत आदित्यं, ततः चन्द्रमसं, ततो विद्युतं, ततो वरुणं, तत इन्द्र,
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy