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________________ ( ६१४ ) ततः प्रजापति ततश्चामानवेनपुरुषेण ब्रह्मप्राप्तिरिति निर्णयः संपद्यते । एवं सति प्रजापतिलोकादन्यस्य कार्यब्रह्मलोकस्यासंभवात् तच्छंकापि भवितु नार्हति यद्यपि तथापि व्यासोक्तमार्गक्यममन्वानस्तथावददिति ज्ञायते । परन्तु वेदार्थ निर्णयार्थमेव प्रवृत्तत्वाद् भगवदवतार त्वाच्च तदुक्त एव शास्त्रार्थ इति मन्तव्यम् । किं च स प्रजापति लोकं स ब्रह्मलोकमित्यत्र ब्रह्मपदस्य परवाचकत्वं तेनापिवाच्यं चेत्, तद् दृष्टान्तेनान्यत्रापि तथैव वाच्यम्, बाधकाभावात् । दूसरी बात यह है कि-"ये चेमेऽरण्ये" इत्यादि श्रुति के अनुसार बादरायमाणचार्य ने "अचिरादिनातत्प्रधितेः" सूत्र से उपक्रम में ही दिखलाया किअचि शब्द का अन्यत्र कहीं किसी अन्य अर्थ में उल्लेख नहीं है, उसके बाद ही "ब्रह्मगमयति" ऐसा उल्लेख है तथा छांदोग्य में जिनका उल्लेख नहीं है ऐसे अन्यत्र उल्लेख्य लोकों का वहीं सन्निवेश करके मार्गक्य की सिद्धि होती है, उसमें “वायुमब्दात्, तडितोऽधिवरुणो, वरुणाच्चाधीन्द्रप्रजापति" इत्यादि सूत्रों की योजना की । इस प्रकार उन्होंने निर्णय किया कि -सर्व प्रथम अचि, उसके बाद अह, फिर शुक्ल पक्ष, फिर उत्तरायण, फिर संवत्सर, फिर वायु, फिर देवलोक, फिर आदित्य, फिर चन्द्रमस, फिर विद्युत, फिर वरुण, फिर इन्द्र, फिर प्रजापति लोक की प्राप्ति होती है वहाँ से अमानव पुरुष ब्रह्मलोक तक पहुँचाता है । इस निर्णय से यह शंका भी निर्मूल हो जाती है कि कार्यब्रह्मलोक की प्राप्ति होती है, क्योंकि उक्त क्रम में प्रजापति लोक का स्पष्टोल्लेख है उसके बाद ब्रह्मलोक की चर्चा है । इस पर भी व्यासोक्त मार्गक्य की बात न मानकर वैसा कहा जाता है । वेदार्थ का निर्णय करने में ही प्रवृत्त भगवदावतार व्यास के द्वारा किया गया निर्णय ही शास्त्रार्थ है, यही मानना चाहिए । यदि कहें कि-"स प्रजापतिलोकं स ब्रह्मलोक" वाक्य में ब्रह्मपद की पर वाचकता स्पष्ट ही प्रतीन हो रही है फिर जैमिनि की मान्यता की क्या आवश्यकता है ? इसका उत्तर भी स्पष्ट है, जहाँ प्रजापतिलोक की चर्चा नहीं है वहाँ के संशय की निवृत्ति के लिए उनकी मान्यता सहायक है । __ननु परस्य व्यापकत्वान्निविशेषितत्वाच्च न गन्तव्योपपद्यते । जीवस्याप्यविद्योपाध्यवच्छिन्नतादशायां परब्रह्मणि गन्तृत्वासंभवात् तन्नाशे च वस्तुतोऽभिन्नत्वात् स्वरूपेणावस्थानमेव भवतीति न गन्तृत्वमप्युपपद्ये । तस्यैवाभावात् । जीवत्वदशायां तूपाध्यवच्छेदाद् गन्तॄत्वं जीवस्यापरस्य ब्रह्मणश्चाविद्यकरूपनामवत्त्वेनगन्तव्यता चोपपद्यते । उपासनाफलत्वादस्य गमनस्य उपास्यस्य च सगुणत्वेन तत् प्राप्तेरेवोचितत्वाच्च निर्गुणब्रह्मविद्यावतो गंतृत्वासंभव इत्युक्तमतो
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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