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________________ कहते हैं कि परमब्रह्म तो व्यापक हैं किसी देश विशेष में उनकी प्राप्ति की बात असंगत-सी प्रतीत होती है इसलिए कार्यरूप ब्रह्मलोक की प्राप्ति की बात ही ठीक अँचती है । एक देशव्यापी होने से कार्य ब्रह्मलोक में जाने की बात ही संभव है। विशेषितत्वाच्च ।४।३।९।। "ब्रह्मलोकानामयति ते तेषु ब्रह्मलोकेषु पराः परायत्तो वसन्ति" इति श्रुतौ बहुत्वेनवासाधिकरणत्वेन च विशेषिता लोकाः। गन्तारश्च दूरदेशगत्या विशेषिता इति न परब्रह्म तत् किन्तु कार्य मेवेत्यर्थः लोकपदं तज्जन्य भोगपरम् । तेन तस्यैकत्वेऽपि विविध भोगज्ञापनाय बहुवचनं पठ्यते । तत्र ब्रह्मशब्दप्रयोगे हेनुमाह। __ "ब्रह्मलोकानामयति" इत्यादि श्रुति में अनेक लोकों की, निवास स्थान के रूप में चर्चा की गई है, जिससे देश विशेष की प्रतीति होती है । उन लोकों में जाने वाले, विशेष रूप से दूर जाते हैं अतः वह ब्रह्मलोक की चर्चा नहीं हो सकती अपितु कार्यब्रह्म की ही हो सकती है । लोकपद, लोकगत भोग का सूचक है । लोक एक ही है, विविध भोगो को दिखलाने के लिए वहुवचन का प्रयोग किया गया है । ब्रह्म शब्द के प्रयोग का हेतु बतलाते हैं कि सामीप्यात्त तद् व्यपदेशः ।४।३।१०॥ तल्लोकस्थितानां नान्यलोकव्यवधानं पर प्राप्तौ, किन्तु ततएवेति परब्रह्मसामीप्याद् ब्रह्मत्वेन व्यपदेशः कृतः । तु शब्दस्तु वस्तुतो ब्रह्मत्वं व्यवच्छिनत्ति । उस लोक में रहने वालों को पर प्राप्ति में अन्य लोक का व्यवधान नहीं होता अपितु वे वहीं से परब्रह्म के निकट पहुँच जाते हैं, समीपस्थ होने से उस लोक को भी ब्रह्मलोक कहा गया है । सूत्रस्थ तु शब्द, वस्तुतः ब्रह्मत्व का व्यवच्छेदक है। ननु "आब्रह्मभवनाल्लोकाः पुनरावत्तिनोऽर्जुन" इति वाक्यात्ततः पुनरावर्त्तते । अत्रतेषामिह न पुनरावृत्तिरस्तीति पठ्यते, इति परमेवात्र ब्रह्मशब्देनोच्यते इति प्राप्ते उत्तरं पठति प्रतिपक्षी तर्क प्रस्तुत करते हैं कि-"ब्रह्मलोक पर्यन्त समस्त लोक पुनरावृत्ति बाले हैं" इस वाक्य से तो कार्य ब्रह्म लोक पुनरावृत्ति वाला निश्चित
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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