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________________ ( ५६५ ) ननु देहस्य कर्मजन्यत्वात्तन्नाशे तन्नाशस्यावश्यकत्वाच्च ब्रह्मविदः प्रवचनानुपपत्तिः । एवं सति ब्रह्मजिज्ञासोगुरूपसत्त्यादि साधनाऽसंभवः । "आचार्यवान् पुरुषोवेद" इति श्रुतेस्तदभावेन ज्ञानमार्गौच्छेदेन भक्त्युच्छेद प्रसंगः, इत्याशंक्य समाधत्ते-पूर्वे-पूर्वसूत्राभ्यां ज्ञाननाश्यत्वेन ये प्रोक्ते पापपुण्ये ते नाशेषे, किन्त्वनारब्धं भोगायतन लक्षणं कार्य याभ्यांतेएवेत्यर्थः । देह कर्म जन्य होता है, अतः देह के नाश हो जाने पर कर्म का नाश भी अवश्य हो जाता होगा, फिर ब्रह्मविद संबंधी प्रवचन की बात व्यर्थ ही है । तथा ब्रह्म जिज्ञासु को गुरु शरणागति पूर्वक साधना की भी आवश्यकता नहीं है । "आचार्य पुरुष ब्रह्म को जानता है" इस श्रुति में कहीं भी ज्ञानमार्ग या साधना का उल्लेख तो है नहीं, अतः ज्ञानमार्ग का उच्छेद हो जाता है और भक्तिमार्ग का भी, इत्यादि शंका का समाधान करते हैं- पूर्व के दो सूत्रों से जो ज्ञान द्वारा पाप पुण्य के नाश की बात कही गई वह सारे हो पाप पुण्य नाश की बात नहीं है अपितु जिन कर्मों का भोग प्रारम्भ नहीं हो पाया है, उन्हीं के नाश की बात कही गई है, जो भोग प्रारम्भ हो चुके है, उनसे तो भोगकर ही छुटकारा मिलता है। नन्वितर निरपेक्षं हि ज्ञानं स्वशक्त्यैवाग्निरेध इव कर्माणि दहति इति पूर्वमुक्तं, तथा सत्यशेषमेव तद् दहतीतिवक्तु युक्तम्, न तु सशेषम् । शक्तेरविशिष्टत्वात् । न च कर्मनाशेऽपि संस्कारवशात् कुलालचक्र भ्रमिवत्तद्वासनावशात् देहादिसत्तया प्रवचनात् उपपत्तिरितिवाच्यम् । ज्ञानस्य सर्वतो बलवत्वात् सवामनस्य तस्य नाशनात् । नहि महाशिला निष्पाते चक्रभ्रमिरनुवत्तितु शक्नोति इत्याशंक्य आरब्धकार्यदहने हेतुमाह-तदवधेः; तज्ज्ञानेनारब्धकार्यांऽदहनं यत् तदखिलकारणकारणत्वेन अखिलस्यपूर्वावधिरूपभगवदिच्छा लक्षणाद्धतोरिथः । तत्र तस्यापि दहनेच्छा तत्र तथैवेति निगूढाशयः । अत एवान तथा वक्ष्यते । अतएव श्री भागवते "मगदारकाभासेन स्वारब्ध कर्मणा योगारम्भणतो विभ्रशितः" इति "उपभोगेन कर्मारब्धं व्यपनयन्निति" च भरतं प्रतिवचनं गीयते । एवं सतिमणिमंत्रादि प्रतिबद्ध शक्तेरग्नेरिव ज्ञानस्याप्यदाहकत्वे न काचिद् हानिरिति सर्वमनवद्यम् । इच्छा प्रतिबद्धतादशायां न प्राचीना दशास्तीति तद् • व्यवच्छेद ज्ञापनाय तु शब्दः । एतेन भगवद्भावस्य सर्वतो बलवत्त्वात् कथं तस्य पात इति शंका निरस्ता। भगवदिच्छाया मूलकारणत्वेनोक्तेस्तस्याः सर्वतो बोलष्ठत्वात् । तथेच्छा च स्वकृत मर्यादापालनाय पुष्टावंगीकृतेन तथेति सर्वमनवद्यम् ।
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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