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________________ ( ५६६ ) ज्ञान किसी भी साधन की अपेक्षा नहीं रखता वह अपनी शक्ति से हो, अग्नि से ईंधन की भाँति कर्मों को भस्म कर देता है ऐसा पहिले ही कह चुके हैं, वह सारे ही कर्मों को भस्म कर देता है ऐसा कहना ठीक नहीं, कुछ कर्मों कोही भस्म करता है यही कहना उचित है, उसमें सामान्य शक्ति ही है, विशेष - नहीं । कर्म नाश हो जाने पर भी, कुम्हार के चक्के की तरह, वासनावश देहादि की सत्ता निरन्तर बनी ही रहे, ऐसा भी नहीं कह सकते । ज्ञान, वासना आदि • से बलवान है अतः वह वासना युक्त कर्म का नाश करता है । बड़े भारी पत्थर को रख देने से चक्के का घूमना बन्द हो सकता है वैसे ही आरब्ध कर्म भी, ज्ञान की बलवत्ता से भस्म हो जाते हैं, ऐसा भी नहीं कह सकते । क्योंकि - आरब्ध कार्यों की समाप्ति तो अपनी अवधि पर ही होती है, उस ज्ञान से आरब्ध कार्य का दहन नहीं होता, उसका दहन तो, अखिल कारणों के कारण परमात्मा की समस्त पूर्वावधि रूप इच्छा से ही होता है । जहाँ उन कार्यों की भी दहन की इच्छा होती है वहाँ परमात्मा वैसा ही बानक बना देते हैं. यही निगूढ आशय है । इसे ही आगे बतला रहे हैं । जैसा कि - श्री भागवत छौना के प्रेम में, योगी भरत अपने आरब्ध कर्म से भ्रष्ट हो गए" उपभोग से आरब्ध कर्म को समाप्त कर" इत्यादि प्रसंग भरत के संबंध में आता है । इस प्रकार, मणि मंत्र आदि प्रतिबद्ध शक्ति से जैसे अग्नि की दाहिका शक्ति क्षीण हो जाती है, वैसे ही, भगवदिच्छा शक्ति से ज्ञान की दाहिका शक्ति कुंठित हो जाती ऐसा समझ में आ जाने पर शंका का समाधान हो जाता है । भगवदिच्छा से प्रतिबद्ध दशा में, प्राचीन दशा नहीं रह जाती, यही बात तु शब्द से सूत्रकार बतला रहे हैं । भगवद्भाव सर्वाधिक बलवान होता है, फिर . भक्त का पतन कैसे संभव है ? इत्यादि शंका भी उक्त विचार से समाप्त हो जाती है । आरब्ध भोग में भगवदिच्छा ही मूल कारण होती है, अतः उसे ही सर्वाधिक बलिष्ठ कहा गया है । भगवदिच्छा, अपनी बनाई हुई मर्यादा का पालन करने के लिए ही होती है, मर्यादा पालन से ही जीव पुष्ट होता है, उस पुष्ट जोव को ही भगवान स्वीकार करते हैं । में - " मृग अग्निहोत्रादि तु तत् कार्यायैव तद्दर्शनात् |४| १३१६ ॥ ननु प्रारब्धं हि प्राचीनं, तन्नाशाय तद्भोग एव कर्त्तव्यो ब्रह्मविदा, न तु विहितमन्यदपि अग्निहोत्रादि प्रयोजनाभावात् । दृश्यते च तादृशानां तत्करणमत्र उत्तरस्य कर्मणः संश्लेष आवश्यक इत्याशंक्य तत्प्रयोजनमाह - तु शब्दः शंकाव्युदासकः । अग्निहोत्रादिविहित कर्म करणं तत्कार्यायैवं भौगकार्याय
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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