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________________ कहते हैं कि-जैसे पाप के अश्लेष विनाश की बात है वैसे ही पुण्य की भी है, 'पाप करने से पूर्व पुण्य का नाश तथा उत्तर पुण्य का अश्लेष होता है । अतिदेश से भी यही बात निश्चित होती है "वह दोनों से मुक्त हो जाता है" उसके कर्म क्षीण हो जाते हैं" इत्यादि सामान्य बोधक वचनों से तथा "ज्ञानाग्नि सर्व कर्माणि" आदि स्मृति के सर्व शब्द से भी उक्त बात की पुष्टि होती है । इस 'पर शंका करते हैं कि-मर्यादामार्गीय होने से, ज्ञान के बाद, भरत की तरह संग दोष से भगवदभाव से च्युत हो जाने पर, संगजदोषोत्पत्ति की तरह आगे चलकर विहित और निषिद्ध कर्मों की उत्पत्ति भी हो सकती है, इसलिए ज्ञान पूर्णतः कर्मविरोधी हो ऐसा नहीं कह सकते । इसका निर्णय करते हैं किभक्तिमार्ग में भगवद्भाव से च्युत हो जाने को पात कहते हैं, सूत्र में प्रयुक्त तु 'शब्द अपि अर्थ में प्रयुक्त है अपि शब्द व्यवच्छेदक है, अतः पाते तु का तात्पर्य हुआ कि-भक्ति मार्ग में पाप का व्यवच्छेद हो जाता है अर्थात् पाप का व्यवच्छेद हो जाने से पतन हो जाने पर भी पाप संश्लेष नहीं होता । “नहिकर्हिचिन्मतपरा" इत्यादि भगवद् वाक्य उक्त तथ्य को पुष्टि करते हैं । किन्तु मर्यादामार्गीय होने से प्रारब्ध भोग के लिए, प्रभु ही वैसी व्यवस्था कर देते हैं जब वह भाव पूर्ण होता है तो कर्म का भोग नहीं होता, यह बात भक्ति में ही होती है, ऐसा व्यास जी का अभिप्राय ज्ञात होता है । तथा च तस्मिन् सत्यप्युत्तरस्य कर्मणोऽसंश्लेषण एवेत्यर्थः पूर्वसूत्र एवमेवा'श्लेषशब्दस्य व्युत्पत्तेः । अतिदेशस्य वम्पदेनैव प्राप्तेः सर्व सूत्रं तत्परत्वेन न व्याख्येयम् । पात शब्दस्य देहपाते तु शब्दस्य अवधारणमर्थमुक्त्वा देहपाते मुक्तेरावश्यकत्वावधारणं वाक्यार्थ इति चोक्ति साधीयसी । मुक्तिप्रापक पदा'भावाद् भोगेन त्वितरे क्षपयित्वाऽथ सम्पद्यते, इत्यग्रवक्तव्यत्वाच्च । उस भक्ति की स्थिति में उत्तर कर्म का भी असंश्लेष रहता है । पूर्व सूत्र में अश्लेष शब्द की व्युत्पत्ति से यही अर्थ निश्चित होता है । अतिदेश वाची सूत्रस्थ एवम् पद से ध्वनित होता है कि सारे सूत्र तत्परक ही नहीं मानने चाहिए । पात शब्द देहपात और तु शब्द अवधारार्थक है, अतः देहपात होने पर तो मुक्ति आवश्यक है, यही उक्त पापमुक्ति सूचक वाक्य में कही गई है । मुक्ति प्रापक पद के अभाव से, उक्त वाक्य का तात्पर्य होता है कि-पुण्य को भोगकर मुक्त होता है । इसे आगे कहा भी है। अनारग्ध कार्ये एवतु पूर्वे तदवधेः ॥४॥१॥१५॥
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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