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________________ ( ५६२. ) बलेनैव कार्यकरणेहि पुष्टिरिह तु नियतकर्मविरोधित्वस्वभावेन ज्ञानेनैव तथा संपत्तेः अतएव-"तद्यथा ईषाकातूलमग्नौ प्रोतं प्रदूयेतवं हास्य सर्वे पाद्मानः प्रदूयन्ते" इति श्रुतिरग्दृिष्टान्तमाह । स्मृतिरपि-'यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात् कुरुतेऽर्जुन," ज्ञानाग्नि सर्वकर्माणि भस्मसात् कुरुते तथा “इति ।" सर्वपाण्मानं तरति, तरति ब्रह्म हत्यां योऽश्वमेघेन यजते" इत्यादि श्रुतिभ्यस्त्वयापि न तद्भोगनियमो वक्तुं शक्यः । एतेनामुक्तस्याक्षयाभोगे च कर्मान्तरजननान्मोक्षासंभव इति निरस्तं वेदितव्यम् । न चान्योन्याश्रयः । अनाद्यविद्याजनितसंसारवासनात्मिकाहि सा । सा च गुरूपसत्तिश्रवणमननविध्युपासनादिरूपया ज्ञानसामग्र यैव नाश्यते । अविद्या परं ज्ञानेन नाश्यत इति क्व तत् प्रसंगः । ज्ञान सामग्न या बलिष्ठत्वात् कर्मणो दुर्बलत्वान्न तत्प्रतिबंधकत्वमिति ज्ञाननाश्यत्वबोधकश्रु ति-स्मृतिमता त्वयाऽप्युररी कार्मम् । इममेवहेतुमाहाचार्यस्तव्यपदेशादिति । पुष्टिमार्गीय भक्त के फल का निरूपण करके अब मर्यादा मार्गीय के फल का विचार करते हैं । मर्यादा मार्ग में ज्ञानपूर्वक भक्ति आवश्यक होती है । कर्म मर्यादा यदि भगवत् कर्म परक होती है तो भगवान् शास्त्रीय कर्म के उल्लंघन हो जाने पर भी फल प्रदान करते हैं। वैसे तो कर्म बिना भोग के क्षीण नहीं होते किन्तु जब वे ही कर्म भगवत् परक हो जाते हैं तो भगवदीय कर्मों की सृष्टि करते हैं, अतः उनसे छुटकारा प ने का प्रश्न ही नहीं उठता, वे बंधन के कारण ही नहीं होते । प्रायश्चित् की तरह, ज्ञान, कर्म को नाश करता हो ऐसा नहीं कह सकते, प्रायश्चित् की तरह, ज्ञान में उद्देश्य नहीं है। ऐसा मानने से ज्ञान और कर्म का अन्योन्याश्रय होगा । पाप से चित्त अशुद्ध होता है, उसक नाश होने पर ही ज्ञानोदय होता है, इसलिए मर्यादा मार्ग में मुक्ति नहीं होती यही मानना चाहिए इस मत पर कहते हैं कि- ब्रह्म ज्ञान हो जाने पर उस ज्ञान से स्वतः ही अग्रिम पापों से श्लेष समाप्त हो जाता है तथा बीते हुए पापों का विनाश हो जाता है । संभावित पापों का अश्लेष होता हो सो बात भी नहीं है अपितु अन्तःकरण में पापों की उत्पत्ति ही नहीं होती इस प्रकार मर्यादामार्ग का भंग भी नहीं होता। इस मार्ग में बिना साधना के ही ज्ञान के स्वरूप के बल से ही पुष्टि हो जाती है । ज्ञान, नियत कर्म के विरोधी स्वभाव का है अतः उसी से मुक्ति प्राप्त हो जाती है । "जैसे कि-अग्नि में तूलराशि तिनके आदि भस्म हो जाते हैं, वैसे ही ज्ञानी पुरुष के पाप भस्म हो माते हैं।" इत्यादि श्रुति में ज्ञान को अग्नि के दृष्टान्त से बतलाया गया है।
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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