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________________ ( ५६१ ) त्यर्थः । यतः शुद्धपुष्टिमार्गेऽङ्गीकृतोऽन्यथा पूर्वोक्त भावसम्पत्तिः कथं स्यादित्युप पत्तिर्हि शब्देन सूच्यते । एतच्च तद्भूतस्य तु नातद्भाव इत्यत्र निरूपितम् । उक्त कथन पर संशय होता है कि अन्तः प्राकट्य का अनुभव कर चुकने पर जब कभी उन्हें बाहर प्राकट्य की अनुभूति होती है तब उन्हें पूर्वानुभूत भगवत्स्वरूप की जैसी अनुभूति हो चुकी है, उसे ही अब भी कर रहा हूँ, ऐसा भाव होता है या नहीं ! पूर्वपक्ष तो कहता है कि-भिन्न प्रकार की अनुभूति का भान होता है । इस पर सिद्धान्त रूप से आप्रयणात् इत्यादि सूत्र प्रस्तुत करते हैं। श्रीमद्भागवत में-"भक्तों का मैं ही प्रायण हूँ" इत्यादि जो भगवत्वाक्य है, उससे तो प्रायण शब्द, स्वतः पुरुषार्थ रूप से प्राप्य परम पारलौकिक फल का वाचक प्रतीक होता। उस फल के आश्रय पर ही कह सकते हैं कि दर्शक को सदा एक सा ही दर्शन होता है बाहर प्राकट्य में किसी वाह्य वस्तु का उस पर प्रभाव पड़ता हो, सो बात नहीं है ? इस संशय पर भी निर्णय देते है कि-उस प्रायण की प्राप्ति हो जाने पर भी साधक पहिले को तरह, प्रभु के साथ प्रत्यक्ष बातचीत करता है, चरण कमल का स्पर्श करता है, अदृष्ट सायुज्य को नहीं प्राप्त करता । क्योंकि वह शुद्ध पुष्टि मार्ग को स्वीकार कर चुका है, अन्यथा पूर्वोक्त भाव की प्राप्ति कैसे कर सकता है इत्यादि भाव "दृष्ट" शब्द से ही सूचित हो रहा है । साधक तद्भूत होकर भी अतद्भाव वाला नहीं होता, यही सूत्र का तात्पर्य है। ६ अधिकरण :-- तदधिगम उत्तरपूर्वाधयोरश्लेषविनाशौ तद्व्यपदेशात् ।४।१।१३।। पुष्टि मार्गीयभक्तस्य फलं निरूप्य, मर्यादामार्गीयस्य तस्य फलं चिन्त्यते । तथ तु ज्ञानपूर्वकत्वं भक्त रावश्यकम् । कर्ममर्यादाया अपि स्वकृतत्वात्तामनुलंध्यैव भगवतःफलं दीयते । तच्च "नामुक्त क्षीयते" तद्भोगानुकूल कर्मणा स्वसजातीयतत्संतानजननाद अनिर्मोक्ष एव सर्वस्य संपद्यते । न च प्रायश्चित्तवज्ज्ञानस्य कर्मनाशकत्वं वक्तु शक्यम् । तद्वत्तस्य तद् उद्देशेनाविहितत्वात् । तथाकथेन चान्योन्याश्रयः। दुरितस्य चित्ताऽशुद्धिहेतुत्वेन तन्नाशे ज्ञानोदयो पतोऽतो मर्यादामार्गे मुक्तिरतुक्तविषयेति प्राप्त उच्यते तदधिगमे ब्रह्मज्ञानेसति-: ज्ञानस्वभावादेवोत्तराघस्याश्लेषोऽसंबंधः पूर्वस्य तस्य विनाशो भवतीत्यर्थः । भत्रोत्तरस्योत्पन्नस्याश्लेष इति नार्थस्तस्यात्मन्येवोत्पत्तेस्तदति रिक्तस्य श्लेषस्यावादतोऽनुत्पत्तिरेवार्थः । न चैवं मर्यादामागीयत्वमंगः । साधनं विना स्वस्वरूप
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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