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________________ .. ( . ० ) हैं।' अथवा-"मै भक्तों के आधीन हूँ" इत्यादि स्मृतियाँ पूर्वोक्त कथन की पुष्टि करती हैं। ४. अधिकरण: यत्र काग्रता तत्राऽविशेषात् ।४।१।११॥ अथेदं विचार्यते, बहिराविर्भावो येन्यो, येभ्यश्चान्तः तेषां तेषां च मिथस्तारम्यमस्ति न वेति ? तत्र निर्णयमाह-यत्र भक्तेषु एकाग्रता भगवत्स्वरूपे 'प्रकट एवैकस्मिन् ग्राहकचित्तधारा, न त्वन्तरवहिविज्ञान तत्रोभयोरन्तः पश्यतो बहिः पश्यतश्च भावे भगवत्स्वरूपे च विशेषाभावान्न तारतम्यमस्तीत्यर्थः। ___ अब विचारते हैं कि-जिन भक्तों के समक्ष बाहर अविर्भाव होता है, और जिनके समक्ष अन्तर आविर्भाव होता है, उन भक्तों में परस्परतारतम्य अर्थात् ऊँचानीचा भाव है या नहीं ? इस पर निर्णय देते हैं कि जिन भक्तों में एकाग्रता होती है उन्हीं के समक्ष तो भगवत्स्वरूप प्राकट्य होता है, क्योंकि उनके चित्त की धारा एक ही लक्ष्य की ओर प्रवाहित रहती है, उन्हें याह्याम्यंतर का कुछ भी भान नहीं रहता अतः उनके बाहर या भीतर वहीं भी भगवान का स्वरूप प्रकट हो उन्हें कुछ भी विशेषता नहीं है, इसलिए उनमें कोई ऊँचा नीचा नहीं है । ५. अधिकरण :आप्र याणात्तत्रापि हि दृष्टम् ।४।१।१२॥ उक्तेऽर्थ एवायं संशयः, अन्त: प्राकट्यवतो यदा बहिः संवेदने सत्यपि पूर्वानुभूत भगवत्स्वरूपानुभवस्तदा पूर्वमन्तरमन्वभूवधुना बहिरनुभवामीत्यनु व्यवसायो भवति, न वेति ? तत्रः वेलक्षण्याद्भवितुमर्हतीति पूर्वः पक्षः । तत्र सिद्धान्तमाह-आप्रयाणादिति । श्रीभागवते–'प्रायणं हि सतामहम्" इति भंगवद् वाक्यात् प्रायण शब्देन स्वतः पुरुपार्थत्वेन प्राप्यं परमं पारलौकिक फलमुच्यते । तथा च फलं तन्मर्यादीकृत्य तस्य सैवावस्था सार्वदिकी, न तु • बहिः प्राकट्येऽपि बहिदृष्ट्वानुसंधानमित्यर्थः । ततस्तस्य तत्र सायुज्यं भवति नं वेति ? संशयें निर्णयमाह-तत्रापि प्रावणेऽपि प्राप्ते तस्य पूर्ववत् प्रभुणा सममालापावलोकन श्रीचरणनलिनस्पर्शादिकं दृष्टमेवफलं, नत्वदृष्ट सायुज्यमि
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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