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________________ लीला में प्रवेश करने की विशेष इच्छा होती है अतः यज्ञ का उदाहरण बहुत अच्छा दिया है जैसे कि सोम आदि यज्ञों में "न दानानि न पचति" इत्यादि से यागेतर धर्म की निवत्ति बतलाकर एक मात्र यज्ञ को ही ऋत्विक के लिये परम धर्म कहा गया है, वैसे ही पुरुषोत्तम का सर्वात्मभाव वाले भक्तों के साथ रमण ही सब कुछ है, इससे प्रभु और भक्त की महिमा सूचित होती है । इस लीला यज्ञ में भक्तों को ऋत्विक बतलाने का कुछ और भी तात्पर्य है। उन यज्ञों में, यजमान अपने कर्म की सांगोपांग पूर्ति के लिये ऋत्विक को खरीदता है, वरण करके अपने कर्ममात्र के उपयोग के लिये ही ऐसा करता है यही बात, भक्तों का वरण कर भगवान करते हैं । कह सकते हैं कि-उन यज्ञों में तो दक्षिणा से खरीदा जाता है और ऋत्विक की प्रवृत्ति भी उसी से होती है, किन्तु यहाँ तो भगवान ही स्वयं पुरुषार्थ हैं, इसी भाव से भगवत्सम्बन्धी प्रवृत्ति होती है अतः दोनों में विषमता है। उन यज्ञों मेंनिर्लोभी का भी जब वरण किया जाता है तब दक्षिणा सम्बन्धी "कश्चित् कल्याण्यो दक्षिणा" इत्यादि प्रश्न किया जाता है और दक्षिणा भी समान रूप से दी जाती है, यदि ऐसा न करें तो यज्ञ का एक अंग हो अपूर्ण रह जाय । वैसे ही लीला यज्ञ में भक्तों को स्नेह से ही लीला में प्रवृत्ति होती है, भक्त. उसके बदले कुछ चाहता नहीं', भगवान् अपने अनुभव के लिये ही उन भक्तों को अनुभव कराते हैं, यही दक्षिणा है, अतः दोनों प्रकार के यज्ञों में कोई विषमता नहीं है। श्रु तेश्च ।३।४।४५॥ अथर्वणोपनिषत्सु पठ्यते--"भक्तिरस्यभजनं तदिहामुत्रोपाधिनैराश्येनैवामुष्मिन्मनः कल्पनमेतदेव च नैष्कार्यमिति"। भक्तिमार्ग प्रचारकहृदयोबादरायणः, मानं भागवतं तत्र तेनैवं ज्ञेयमुत्तमैः अथर्वोपनिषद् में पाठ है कि-"भगवान की भक्ति हो भजन है, जो कि संसारिक वासनाओं से विरत होने पर निष्काम भाव से मन में होती है।" इत्यादि श्रुति उक्त मत की ही पुष्टि करती है । भगवान बादरायण एक मात्र भक्तिमार्ग के प्रचारक है, एक मात्र श्रीमद् भागवत ही उसका प्रमाणित ग्रन्थ है, उसमें भी उत्तम भक्ति से अधिकारियों का ऐसा ही वर्णन मिलताः
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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