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________________ ( ५३८ ) ७. अधिकरण : सहकार्यन्तरविधिः पक्षणतृतीयंतद्वतोविध्यादिवत् ।३।४।४६॥ ___ननु यमेवैति श्रुतिः साधनान्तर निषेध पूर्वकं वरणस्यैव साधनत्वमाह ।" तस्मादेवं विच्छान्तोदान्त उपरतिस्तितिक्षुः श्रद्धान्वितो भूत्वाऽत्मन्येवात्मानंपश्येत्' इति श्रुतिः साधनान्तरमप्याह। एवं विरोधे श्रुतित्वाविशेषात किमादरणीयं किं नेति संशये साधनान्तरविधिरेवादरणीयोऽन्यथा शास्त्रवैयर्थ्य स्यादिति प्राप्ते, उच्यते-सहकार्यन्तरविधिरिति मर्यादापुष्टिभेदेन वरणं द्विधोच्यते । तत्र सहकार्यन्तरविधिस्तु मर्यादा अपेक्षणोच्यते । पुष्टौ तु नान्या'पेक्षेति न विरोधगन्धोऽपि । अपरं च साधनं हि कायिकवाचिकं मानसिकं च विधीयते । तत्र मनसैवाप्तव्यमिति श्रुतेस्तृतीयं मुख्यम् । तदपि तावदेव मार्यादिकस्यापि विधेयत्वेन कर्तव्यम यावत्स्नेहो न भवति । यतस्तद्वतः स्नेहवतस्तूक्तं तृतीयं साधनपि विध्यादिवत् । यथा तद्वतौ विधिरर्थवादो वा प्रवृत्तावप्रयोजकस्तस्य स्वत एव संभावत्तथा भगवत्प्राप्ताविदमित्यर्थः । कैमुतिक न्यायेनपूर्वयोरप्रयोजकत्वमेतन्शेषत्वात् एव आयास्यति इति तृतीय. मेवोक्तम । ___ "यमेवैति" श्रुति तो अन्य साधनों का निषेध करके एक मात्र वरण की ही महत्ता बतलाती है जब कि- "एवं विच्छान्तोदान्त" आदि श्रुति अन्य साधनों को भी महत्व देती है । इस प्रकार को विरुद्धता में तथा दोनों ही श्र तियों की समानता में किस श्र ति का आदर करें, किसका न करें, इस संशय पर विचार होता है । कि साधनान्तर विधि हो आदरणीय है, यदि ऐसा नहीं करेंगे तो शास्त्र व्यर्थ हो जायगा । इस पर सूत्रकार कहते हैं कि-मर्यादा और पुष्टि भेद से वरण दो प्रकार का होता है, सहकार्यन्तरविधि मर्यादा को अपेक्षा रखती है जब कि पुष्टि में अन्य की अपेक्षा नहीं होती, इसलिये विरोध का प्रश्न ही नहीं है। दूसरी बात ये है वि.-साधन, कायिक, वाचिक और मानसिक भेद से तोन प्रकार के कहें गये है ! "मनसवाप्तव्यम्" श्रति में मानसिक साधन को ही मुख्य कहा गया है । जब तक आन्तरिक स्नेह न हो तब तक साधनों को मार्यादिक रूप से हो करना चाहिये । जब स्नेह हो जाये तो तृतीय मानसिक साधन हो कर्तव्य है । जैसे कि-पुत्र, पिता को सेवा स्नेह वश सहज हो करता है, पिता की सेवा से प्राप्त होने वाले पुण्य को बतलाने वाले वाक्यों के आधार पर पुण्य के लोभ से नहीं करता, वैसे ही
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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