SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 619
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ५३६ ) रमते" इति श्रुतेश्च स्वकीडार्थ भगवान स्वचिकीर्षिततल्लीलानुरूपांज्जीवान् बृते । यूनः स्थविरान् बेति विकल्पादेकरूपाणां यथा सोमादिषु वरणं तथा सर्वात्म भाववरदेनं व रूपाणामेवात्र वरणम् । तत्र यथा स्वीय स्वीयतद गमात्रकरणं तेषांतथेतर संबंध निवर्त्तनपूर्वकं तद्भाग्यसमर्पकत्वमत्र । तदुक्तं भगवता " यदापुमांस्त्यवत समस्त कर्मा निवेदितात्मा विचिकीर्षितो मे" इति अत्र पूर्वपदेन इतरसंबंध निवर्त्तनोक्त्या सर्वात्मभाव उक्तो भवति । तदनन्तरमात्मनिवेदने सति तद्विषयकलीलाकरणेच्छा विषयः संभवति । अन्तरंग लीला प्रवेशन मिच्छायां विशेषः । तस्मात् सुष्ठुक्तमार्त्विज्यमिति । एतेन "न दानानि न पचति" इत्यादि श्रुतेर्यथा सोमादौ दीक्षितस्य तद्यागेतरधर्म निवृत्तिः स एव परमो धर्मो यतः तथा पुरुषोत्तमस्योक्त भवतैः सहरमणमेव सार्वदिकम् एतदेव च महन्महत्वमित्ति सूचित भवति । प्रकृते भक्तानां ऋत्विकत्वेन निरूपणे हेतुत्वेन तात्पर्यान्तरमप्याह । तस्मैयजमानारब्धकर्म सांगत्वाय ऋत्विक् परिक्रीयते । वरणेन स्वकार्यमात्रोपयोगित्वाय स्वीयः क्रियते तथा प्रकृतेऽपि । न च कच्चित् कल्याण्यो दक्षिणा इति प्रश्नवचनात्तदथैव तत्पवृत्तिरत्र तु स्वतः पुरुषार्थत्वेनाभगवदर्थाप्रवृत्तिरतोवैषम्यमिति वाच्यम् । नीरागस्यापिवरण समये तत्प्रश्नस्यावश्यकत्वात्तथैव दक्षिणा दानमध्यन्यथा निरंगत्वापत्तेः । प्रकृतेऽपि भक्तानां स्नेहादेव प्रवृत्तिर्भगवान् स्वानुभवार्थमेव ताननुभावयतीति वृषभ्यम् । सब कुछ छोड़कर प्रभु के समीप जो भक्त जाता है वह, यज्ञ में जाने वाले ऋत्विक के समान है, ऐसा ओडुलोमि आचार्य मानते हैं । यजमान अपनी कार्य सिद्धि के लिये पहिले ऋत्विक का वरण करता है, वैसे ही — भगवान अपनी इच्छित लीला के अनुरूप जीवों का वरण करते हैं, "जिसे वे चाहते हैं वरण करते हैं" वे एकाकी स्मण नहीं करते,' इत्यादि श्रुतियों से उक्त बात सिद्ध होती है । युवक या बृद्ध कोई एक रूप के होता, जंसे सोम आदि भागों में वरण होते हैं वैसे ही सर्वात्मभाव वाले भक्त ही भगवल्लीला के लिए वरण किये जाते हैं। भक्त अपनी समस्त अन्यान्य अभिलाषाओं का त्याग कर ही उक्त लीला में वरण होने का सौभाग्य प्राप्त कर पाता है । जैसा कि भगवान ने स्वयं कहा भी है- " जब मनुष्य अपने समस्त कर्मों को छोड़ कर मुझे खोजने की चेष्टा करता है" इत्यादि । इसमें सब कुछ छोड़ने की बात से, सर्वात्मभाव कहा गया है। आत्म निवेदन करने के बाद ही भगवत् संबंधी लीला करने की इच्छा सम्भव है । अर्थात् भगवान् की अन्तरंग 1
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy