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________________ ( . ५२३ ) ) . भूयेतविप्लुतम् ।" इति ब्रह्मणोक्तम् । " ज्ञानिनामपि चेतांसि देवीं भगवतीहि सा, बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति" इति मार्कण्डेयेनाप्युक्तम् । एषा ज्ञानमार्गीय ज्ञानवतो व्यवस्थेति ज्ञेयम् । भक्तिमार्गीयस्यैवमापदसंभवात् 'अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते, तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्” इति भगवद्वाक्यात् । " मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतान्तरन्ति ते" `इत्यत्रैवकारेण पुरुषोत्तम ज्ञानवत एव मायावरणोक्तेरक्षरमात्र ज्ञानवतां तथात्वमुचितम् । उल्लेख किया है, यद्यपि ज्ञान साधन के रूप अन्तःकरण की शुद्धि, अपेक्षित है, ज्ञान हो जाने पर उसको अपेक्षा नहीं रह जाती "न हवा एवं विदि" इत्यादि में उसी अवस्था का उल्लेख है, किन्तु ऐसी अनुमति सर्वदा के लिए होना उचित नहीं है । ' ' अपिस्मते" में तो अज्ञानी को भी अनुमति दी गई प्रतीत होती है । बादरायणाचार्य ने अवस्था विशेष में ही अभक्ष्य भक्षण का जिससे निश्चित होता है कि- ज्ञानी भी बिना आपत्ति के विहित का त्याग और अविहित का पालन न करें, ऐसा करने से चित्त मलिन हो जायगा, यही श्रुति का अभिमत है । श्री भागवत के द्वितीय स्कन्ध में जैसा कि ब्रह्मा कहते भी हैं - "प्रशान्त आत्मेन्द्रिय आशय वाले मुनि ही, विशुद्ध केवल ज्ञान स्वरूप सत्य पूर्ण आद्यन्तरहित निर्गुण नित्य सुस्थिर अद्वैत तत्त्व जानते हैं, जब उसके संबंध में तर्क किया जाता है तो वह तिरोभूत हो जाता हैं ।" मार्कण्डेय पुराण में भी आता है कि - " वह भगवती देवी ज्ञानियों के चित्त को भी बलात् खींच कर मोह में डाल देती हैं ।" इत्यादि । यह ज्ञानमार्गीय ज्ञानियों की ब्यवस्था है । भक्तिमार्गी को तो कभी आपत्ति का सामना करना ही नहीं पड़ता क्योंकि भगवान की उन पर पूर्ण कृपा रहती है जैसा कि भगवान ने स्वयं कहा भी है - " जो भक्त अनन्य भाव से मैरी उपासना करते हैं, उन सतत प्रयत्नशील भक्तों का योगक्षेम मैं स्वयं वहन करता हूँ ।" जो मुझे ही भजते हैं वे इन महामाया से छूट जाते हैं" इत्यादि भगवद् वाक्य में " मामैव" पद में जो एवकार है, उससे निश्चित होता है कि- पुरुषोत्तम को जानने वाले हीं माया से तरते हैं ।'' अक्षर मात्र के ज्ञाताओं की उपर्युक्त व्यवस्था है । अबाधाच्च । ३'४|२८|| आपदि तथान भक्षणेन चित्ताशुद्धयसंभवेन तज्जनित प्रतिबन्धाभावाच्च न दोष इत्यर्थः ।
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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