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________________ ( ४८८ ) अत्र “फलमत उपपत्तेः” इत्यत्रवोपपत्त हेतुत्वेनानुवत्वा श्रुतिपदं चानुक्त्वा शब्दपदं यदुक्तवांस्तेन श्रुतिस्मृत्यात्मकः सर्वोऽपिप्रमाण शब्दो हेतुत्वेन व्यासा - भिमत इति ज्ञायते । तेन " केवलेन हि भावेनगोप्योगावः खगा मृगाः । येऽन्ये मूढ - धियोनागाः सिद्धा मामीयुरंजसा । यन्न योगेन सांख्येन दानब्रततपोध्वरैः । स्वाध्याय संन्यासः प्राप्नुयाद् यत्नवानापि ।" इत्यादि रूपास्मृरपि संगृह्यते एतेन श्रुत्यादि प्रमाणवादिनामिदमेवाभिमतं तद्विरुद्धवादिनामितोऽन्यदिति तेषामप्रमाणिकत्वं ज्ञाप्यते । अतएव स्वनाम गृहीतम् । स्वस्य वेद व्यासकर्त्त - त्वेन तत्रैव यतोभरः । अपरंच वैदिक सिद्धान्ते भगवत्स्वरूपस्यैव स्वतंत्र पुरुषार्थत्वात् प्राप्त तत्स्वरूपाणां मुक्त्यानिच्छाकथनान्मुक्तोपसृप्यव्यपदेशाच्च मुक्तेरपरमपुरुषार्थत्वात् सा भवतु नामाऽन्यैः साधनैः । वस्तुतः परमपुरुषार्थों य उक्त रूपः स तु सर्वात्मभावेनैवेति ज्ञापनाय फलपदमनुक्त्वा पुरुषार्थपदमुक्तम् । एवं सत्यस्य सूत्रस्यार्थान्तरमपि व्यासाभिमतमिति ज्ञायते । तथा सत्ययंश्लिष्ट: प्रयोगः तथाहि पुरुषार्थो भगवान् एव कुतः “अतः शब्दात् " अतः पदविशिष्ट श्रुतिवाक्यादित्यर्थः । तैत्तरीयोपनिषत्सु पठ्यते - " अतः परं नान्यदणीयसँ हि परात् परं यन्महतो महान्तं यदेकमव्यक्तमनन्तरूपं विदवं पुराणं तमसः परस्- तात्" इति । , "फलमत उपपत्तेः” सूत्र में उपपत्ति के हेतु से जो बात नहीं कही, वही यहाँ पर श्रुति पद न कह कर शब्द पद से कही, जिससे श्रुतिस्मृति सभी प्रमाण हैं, यही शब्द पद के प्रयोग से, व्यासाभिमत ज्ञात होता है । "केवल भाव से ही गोपी, गौ, पशु पक्षी नाग सिद्ध आदि मुझे प्राप्त हुए, जिन्होने योग सांख्य दान व्रत तप यज्ञ, शास्त्राभ्यास संन्यास आदि कोई भी प्रयास नहीं किये थे" इत्यादि स्मृति भी उक्त विषय में उसी प्रकार प्रमाण है जैसे कि - श्रुति को प्रमाण मानने वालों के लिये श्रुति प्रमाण होती है । जो लोग शास्त्र को प्रमाण नहीं मानते उनके लिये, ये हो क्या कोई भी शास्त्र अप्रमाणिक ही है । इसलिये सूत्रकार ने सूत्र में अपना नाम लेकर अपने प्रमाण रूप से सिद्ध किया है । 1 वेदव्यास कर्तृत्व को दूसरी बात ये है कि - वैदिक सिद्धान्त में भगवत् स्वरूप की स्वतंत्र पुरुषार्थता कही गई है, उनके स्वरूपों की प्राप्ति होने पर मुक्ति को भी अनिच्छा बतलाई गई है तथा स्वयं सूत्रकार "मुक्तोपसृप्यव्यपदेशाच्च" सूत्र में मुक्ति ' की परम अपुरुषार्थता सिद्ध करते हैं, जो कि अन्य साधनों से भी प्राप्त है । वस्तुतः परमपुरुषार्थं का जो रूप कहा गया है वह सर्वात्मभाव ही हैं, इस
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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