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________________ ( ४५६ ) 'आत्मन एवेदं सर्वम्" इत्यादि कहा गया है । उसके बाद के श्लोकों से परमात्मभाव के स्वरूप को बतलाकर उसके मूल कारण को बतलाते हैं“आहार शुद्धि से अंतःकरण शुद्ध होता है, अन्तःकरण शुद्ध होने पर भगवत् चिंतन होता है ।" आहार प्राण पोषक तत्त्व है, यदि वहीं दोष युक्त होगा तो कुछ भी सिद्ध नहीं हो सकता सर्वात्मभाव हो जाने पर, भगवान के अतिरिक्त जितने भी संसारी पदार्थ हैं जो कि - सदोष हैं, उनके प्राण पोषक भगवान ही हो जाते हैं, अतः सारी बात बन जाती है । सर्वात्मभाव होने पर ही भगवान • प्राण पोषक होते हैं । वे भाव भी भगवान की कृपा बिना संभव नहीं है, जब वे वरण करते हैं तभी संभव है । और उसका अनुमान तो, भगवत कृत प्राण पोषण युक्त सर्वात्म भाव की स्थिति में होने वाले कार्यों से ही हो जाता है, "भगवान् ने वरण कर लिया, इसका ज्ञान तो सर्वात्मभाव संपन्न भक्त के क्रियाकलापों से हो जाता है वह भाव ही सर्वश्रेष्ठ है, क्योंकि - उसी भाव में सर्वाधिक तन्मयता देखी जाती है, इसलिए भगवद् वरण ही, काल आदि सबसे बलवान है, ऐसा मानना चाहिए । सर्वात्मभाव के लक्षण ही सर्वश्रेष्ठ 'होते हैं, उसकी भगवत्ता के विषय में कुछ भी कहना शेष नहीं रह जाता, कैमुतिक न्याय से भी ऐसा ही निश्चित होता है । ज्ञानमार्गीय ज्ञान, उक्त स्थिति में प्रतिबंधक होता है. इस शंका पर सूत्रकार कहते हैं — "तदपि ", अर्थात् फिर “भो भगवत् कृपा ही, श्रेष्ठ है, भगवत्कृपा से सब कुछ संभव है । "अन्तरा "भूतग्रामवत् स्वात्मनः " इस सूत्र से हम इस संशय का समाधान कर भी चुके हैं । पूर्व विकल्पः प्रकरणात् स्यात् क्रिया मानसवत् | ३ | ३ | ४५ || तत्राह - नात्रवरणलिंग भूयस्त्वं निरूप्यते, किन्तु आत्मज्ञान प्रकारविशेष एव । तथाहि — पूर्वप्रपाठक आत्मना सहाभेदः सर्वस्य निरूपितः श्वेतकेतूपाख्यानेन । अग्रिमे च - " सोऽहं भगवो मंत्रविदेवास्मि नात्मविद्" इत्यादिना - नारदस्यैवात्म जिज्ञासैवोक्ता । एवं सत्युत्तरमपि तद् विषयकमेव भवितुमर्हति अत आत्मप्रकरणत्वात् उभयोः प्रपाठकयोः पूर्वस्मिन् यदभेद उक्तस्तस्यैव " स्वरूपमात्मन एवेदं सर्वम्" इत्यन्तेनोक्तम् इति पूर्वोक्त प्रकारादन्येन प्रकारेणात्मभेद एव सर्वोक्तः । तदेवाह - पूर्वस्य पूर्वप्रपाठकोक्तात्मभेदज्ञानस्य विकल्पः प्रकार भेद एवाग्रेऽपि निरूप्यते । तत्रोपत्तिमाह - प्रकरणादिति एतत्त्पपादितम् अत्र सिद्धान्त संमतं दृष्टान्तमाह — तद हृदय संवादार्थम् — क्रियामानसवदिति – यथा पूजन प्रकरणे बाह्यतत्क्रिया रूपमुच्यते, आन्तरंतु -
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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