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________________ ( ४५६ ) का उल्लेख मिलता है, अतः प्रतिबन्धक के अभाव में ही सर्वात्मभाव संभव है इस पर सिद्धान्त रूप से "लिंगभूय" इत्यादि सूत्र प्रस्तुत किया जाता है | सर्वाधिक वस्तु को बतलाकर, ज्ञेय रूप - सामवेदीय छांदोग्योपनिषद् में, सनत्कुमार नारद के संबाद में - प्रारम्भ में ही मुख्य ब्रह्मविद्या के उपदेश की अर्हता नहीं होती इस भाव से सनत्कुमार नारद के अधिकार को जानने के लिए नारद से कहते हैं कि "जो जानते हो "हमें बतलाओ " इस पर नारद ने अपने ज्ञात ऋग्वेद आदि और सर्प देव मनुष्य आदि विद्याओं का उल्लेख करते हुए "भगवन् ! मैं सबके मंत्रों को भी जानता हूँ" अपने अधिकार को बतलाकर कहते हैं कि- " मैंने आप जैसों - से सुना है कि आत्मवेत्ता शोक को पार कर लेता हैं, भगवन् ! मैं शोक करता हूँ, मुझे आप शोक से पार करें" ऐसा नारद के कहने पर सनत्कुमार पूर्वं पूर्वं वस्तुओं से बाद की वस्तुओं से श्रेष्ठ बतलाते हुए निर्धारित करने के लिए, नाम वाणी मन, संकल्प, चित्त, जल, , तेज, आकाश, आशा, प्राण आदि की ब्रह्मरूप से •बतलाकर, प्राणोपासक की अतिवादिता और सत्यवादिता से सत्य, विज्ञान, मति श्रद्धा, निष्ठा कृति, सुख को उत्तरोत्तर श्रेष्ठ बतलाकर, सुख स्वरूप की नारद द्वारा जिज्ञासा करने पर वे कहते हैं कि" जो भूमा है वही सुख है ।" भूमा के स्वरूप की जिज्ञासा होने पर वे कहते हैं कि - "जिस स्थिति में साधक कुछ और नहीं देखता, कुछ और नहीं सुनता, - कुछ और नहीं जानता वही भूमा है" इस प्रकार सर्वात्मभाव स्वरूप का ही वर्णन करा गया है, उस भाव में, विरह भाव में अतिगाढ भाव होता है, इसलिए सर्वत्र उस प्रियतम की ही स्फूति होती है " स एवाधस्तात्" इत्यादि में इसी बात का उल्लेख कर कभी अपने में भी भगवत्ता की स्फूर्ति होती है 'इस बात को "उसी में अहंकारादेश किया जाता है" इत्यादि से बतलाकर, उनको व्याभिचारिभाव रूप से लेना चाहिए इस बात को बतलाने के लिए पुनः सर्वत्र भगवत्स्फूर्ति बतलाने के लिए " आत्मारूप से ही भूमा का आदेश किया जाता है" इत्यादि उपदेश करते हैं । इसलिए वियोग भाव के बाद संयोग भाव होने पर, सब कुछ समाप्त करने वाले सर्वो पमर्दो पूर्वभाव से जो अपने प्राण आदि समस्त का तिरोधान हो गया था, उन सबका पुनः आवि भाव कैसे हो सकेगा, वे साधक अग्रिम लीला के लिए उपयोगी नहीं हो सकेंगे, इत्यादि शंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि भगवान की ही सारी वस्तुएँ हैं, इस आशय से " तस्य ह वा एतस्यैवं पश्यत्" इत्यादि उपक्रम करते हुए ध्यान, विज्ञान, बल, उपासना का विषय
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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