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________________ ( ४६० ) मनोव्यापाररूपमुच्यते । नहि एतावताऽन्यतरस्य तद् भिन्नत्वं वक्तु ं शक्यम् । प्रकरणभेदात् तथेहापीत्यर्थः । उपर्युक्त सूत्र के मत पर कहते हैं कि - उक्त प्रकरण में वरणलिंग क बहुलता का निरूपण नहीं है अपितु आन्मज्ञान के प्रकार विशेष का निरूपण है। पूर्व प्रपाठक में श्वेतकेतु के उपाख्यान से सबका आत्मा के साथ अभेद दिखलाया गया है । इसके बाद के प्रापाठकों में "भगवन् ? मैं मन्त्रविद हूँ आत्मविद नहीं " इत्यादि से नारद द्वारा की गई आत्म जिज्ञासा का उल्लेख है 1 इसलिये यही निश्चित होता है कि बाद के प्रपाठक में भी आत्मतत्व का ही विश्लेषण किया गया है । पहिले जो आत्म प्रकरण से, दोनों प्रपाठकों का भ ेद कहा गया उसी का स्वरूप " आत्मन एवेदं सर्वम् " इत्यादि अन्तिम वाक्य से बतलाया गया । पूर्वोक्त प्रकरण से भिन्न प्रकार का आत्माभ ेद इम प्रकरण में सबको बतलाया गया है । इसी बात को सूत्र में कहते हैं कि पूर्व प्रपाटक में कहे गये आत्माभ ेद ज्ञान का विकल्प अर्थात् प्रकारभेद आगे भी निरूपण करते हैं । जो कि प्रकरण से ही निश्चित हो जाता है । इस विषय में सिद्धान्त संभत दृष्टान्त देते हैं कि वह भेद हृदय संवाद की दृष्टि से है । जैसे कि — पूजा के प्रकरण में बाह्य प्रजा क्रिया रूप होती है और आन्तरिक पूजा मनोव्यापार. रूप होती है, इनमें किसी को भी एक दूसरे से भिन्न नहीं कह सकते, वैसे ही उक्त वर्णन प्रकरण भेद से है वास्तविक नहीं है । अतिदेशाच्च | ३ | ३ |४६ ॥ नाम रूपात्मकं हि जगत् तत् पूर्वं सर्व शब्देनानूद्य तस्मिन् ब्रह्माभेदो निरूपितोऽग्रे तु ऋगादिविद्या अनूद्य नामात्मक ब्रह्मत्वं तत्र अतिदिश्यते - " नाम - वैतन्नामोपाश्व " इति । इतोऽपि हेतोर्ज्ञान प्रकारभेद एवाग्रे निरूप्यत इत्यर्थः । साराजगत नाम रूपात्मक है, उस सबको सर्व शब्द से उल्लेख किया गया है और सब का ब्रह्म से अभ ेद बतलाया गया है आगे ऋगादिविद्या का निरूपण करते हुये उसके नामात्मक ब्रह्मत्व का अतिदेश "नामै वैतन्नामोपास्व" इत्यादि । इस प्रकार से भी ज्ञान निरूपण किया गया है । किया गया हैप्रकारभेद का आगे
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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