________________
( ४०५ ) गया है, उससे भिन्न आत्मा नामधारी तत्व का "आत्मेत्येवोपासोत्" में उल्लेख है । लोक में प्राण वायु इन्द्रिय आदि भिन्न-भिन्न नामों से पुकारे जाते हैं, जीव के प्राण हैं जोव को आँख है, इत्यादि नहीं कहा जाता । इसीलिए श्रुति आगे ईश्वर शब्द का स्पष्ट उल्लेख करती है । इसीलिए उक्त आत्मा को सर्वश्रेष्ठ प्रियतम कहा गया है-'सर्वस्मादन्तरतरं यदयमात्मा" इत्यादि । पुत्र आदि से भिन्न तो जीवात्मा है उससे भो अतिशय भिन्न पुरुषोतम स्वरूप हो हो सकता है । इस विग्रह से हो, ईश्वर को आत्मरूपता सिद्ध होती है । इसलिए, निर्विकार, परमानन्दत्व आदि धर्मों का उपसंहार करना चाहिए।
ननु विग्रहे चक्षुः श्रोत्रादीनां वै लक्षण्य प्रतोतेरात्मनश्चैकरसत्वादुक्त कर्मनामवत्वं ब्रह्मण्यनुपपन्नमित्याशंक्योत्तरं पठति ।
उक्त विग्रह के अनुसार तो, चक्षु थोत्र आदि की विलक्षणता प्रतीत हो रहो है, आत्मा तो एकरस है, उक्त देखना सुनना आदि कर्म ब्रह्म में हो नहीं सकते ? ऐसी आशंका उपस्थित करके उत्तर देते हैं।
समान एवंचाभेदात् ३।३।१९।।
चोऽप्यर्थे । तथा चैवमपि सति श्रोत्रचक्षुरादि, वैलक्षण्य प्रतीतावपि सति समान एक रूप एव, न तु विष मः । तत्र हेतुरभेदादिति । चक्षुरादीनां ब्रह्मत्वेन परस्परमभेदादित्यर्थः । अत्रेदमाकृतम् । “तं त्वौपनिषदं पुरुषं पृच्छामि" इति श्रुतेरुपनिषद्वेद्यमेव ब्रह्मस्वरूपम् । ताश्च "प्राणन्नेव प्राणो भवति वदन वागित्यादिरूपाः ।" प्रतिनियतेन्द्रियग्राह्यात् अर्थात् स्वरूपेणैव गृहणत् ब्रह्म तत्तच्छन्दवाच्यं भवतीति वदंति । तद्वाच्यता च व्यवहार्यत्वे । सच, "तदेत्प्रेयः पुत्रात" इत्यादि वाक्यैकवाक्यतया निरुपधिस्नेहवतामेव व्यवहार्य इति ज्ञाप्यते । स चाविभूतेऽवताररूप एव संभवति । एवं सति तत्र भक्तः भगवद् विग्रहे तत्तदवयवेषु भेदेन यथा यथा व्यवह्रियते तथा तथैव तदेकमेवाखण्डसच्चिदानंद रूपं ब्रह्मत्यर्थः संपद्यते । एवं विधो लोके न प्रसिद्ध इत्यसंभावना स्यात्, तदभावायाने श्रुतिराहेश्वरो हि तथा स्यादिति ।
___ सूत्र में च शब्द अपि अर्थ में प्रयोग किया गया है, जिसका तात्पर्य होता है कि-नेत्र श्रोत्र आदि को विलक्षणता होते हुए भी वे सब समान रूप से एक हैं, विषम नहीं हैं, क्योंकि इनमें ब्रह्मत्वेन एकता है । "तं त्वोपनिषदं पुरुषं