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________________ ( ४०६ ) पृच्छामि" इत्यादि श्रुति से निश्चित होता है कि ब्रह्मस्वरूप उपनिषद् वेद्य हो है। "प्राणन्नेव प्राणोभवति" इत्यादि से निर्देश किया गया कि प्रत्येक इन्द्रियग्राह्य अर्थों को स्वरूपानुसार ही ग्रहण करना चाहिए, उन-उन नामों से ब्रह्म ही का बोध होता है । उनकी जो वाच्यता है वह व्यवहार के लिए है। "यह पुत्र से भी अधिक प्रिय है" इत्यादि वाक्यों में एक वाक्यता है, जो कि सहज स्नेही लोगों की व्यवहार्यता को बतलाता है । यह आविभूत अवतार रूप में ही संभव है । भक्त लोग भगवान के अवतार विग्रह में उन-उन नेत्र आदि अवयवों का उपासता में व्यवहार करते हैं वो सब मिलाकर सच्चिदानंद रूप ब्रह्म है। लोक में ऐसी संभावना नहीं है-इसी बात को प्रकरण में आगे 'ईश्वर" पद से दिखलाया गया है। एतेनाविभूत रूपे व्यापकत्वैकरसत्वमच्चिदानंदत्वादयो धर्मा उपसंहतंव्या अगविभूतेपीति स्थितम् । एवं सत्याविर्भावेऽनाविर्भावेऽपीश्वरः समानः न हि आविर्भावे काश्चन् आगंतुकान् धर्मानादायाविर्भवतीतिवक्त शक्यम् अनाविभूतस्यापि एवमाविभूत प्रकारेणैवाभेदादित्यपि सूत्रार्थः सूत्रकाराभिमत इति ज्ञातकम् । चकारेण विरुद्ध सर्वधमश्रियत्वं समुच्चीयते । एवं साक्षात् अवमूत भगवद् रुपे पूर्णानन्तधर्मास्तदुपासके नोपसंहर्त्तव्या इति सिद्धम् । इस आविर्भूत रूप में व्यापकत्व एकरसत्व, सच्चिदनन्दत्व आदि धर्मों का उपसंहार करना चाहिए, ये धर्म अनाविभूत रूप में भी रहते हैं । इस प्रकार आविर्भाव और अनाविर्भाव दोनों में ईश्वर समान है । ऐसा नहीं कह सकते कि किन्हीं आगंतुक धर्मों को लेकर आविर्भाव होता है , अनाविभूत में भी आविर्भूत की तरह उक्त धर्म अभेद रूप से रहते हैं, यही उक्त सूत्र में सूत्रकार का सभिमत है । चकार का प्रयोग कर सूत्रकार बतलाते हैं क्रि-सारे विरुद्ध धर्म भी प्रभु के आश्रित रहते हैं । इसलिए, साक्षात् आविर्भूत भगवान के रूप में पूर्ण अनन्त आदि धर्मों का उपसंहार भक्तों को करना चाहिए। अथ यत्र कार्य चिकीर्षया जोवे स्वयमाविशति तदा आवेशात्तद्धर्मा अपि केचित, तस्मिन्नाविर्भवन्ति । तत्रोपासकेनाखिलब्रह्मधर्मोपसंहारः कर्तव्यो, न वेति शंकासमाधानं विकल्पेन्नाह सूत्राभ्याम् । तत्रादौ विधिपक्षमाह । जब विशेष कार्य सम्पादन की इच्छा से प्रभु, जीव में स्वयं प्रवेश करते हैं, उस समय आवेश से उनके कुछ धर्म भी उस जोव में आविर्भूत होते हैं। आवे
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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