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________________ ( ४०४ ) प्रियत्वमुच्यतेऽन्यत्रश्रुतौतथेहापि 'प्रेयः पुत्रात्' इत्यादिकथनाज्जीवात्मैव भवितुभर्हति इति प्राप्तः। अथवा-वाजसनोयिशाखा में-"आत्मेत्येवोपासीत्" ऐसा उपक्रम करके'जो यह, पुत्र से भी प्रिय, धन से भी प्रिय, अन्य सभी से प्रिय सबसे भिन्न है, वही यह आत्मा है" इत्यादि में सभी के प्रियत्व का निराकरण करके “ईश्वर ही वह प्रिय आत्मा है उसकी उपासना करनी चाहिए' इत्यादि पाठ है। अब संशय होता है कि उक्त प्रकरण में जो आत्मौपाधिक रूप से सर्वत्र जिस प्रियतम आत्मा का उल्लेख है, वह जीबात्मा का ही प्रियतम रूप से उपासना का विधान है, अथवा, प्रियतम को ईश्वर पद से संबोधित किया गया है इसलिए परमात्मा की उपासना का विधान है ? सही क्या है ? विचारने से तो जीवात्मा की ही प्रतीति होती है। आत्मीय पुत्र आदि का प्रियत्व बतलाकर जीवात्मा की प्रियता बतलाई गई प्रतीत होती है, अन्य श्रुति में और यहां भी "पुत्र से अधिक प्रिय" उल्लेख है, जिससे जीवात्मा ही हो सकता है। आह-कार्याख्यानादपूर्वमिति । इतः पूर्वमाम्नायते-"प्राणन्नेव प्राणो प्राणोनाम भवति वदन वागरूपंपश्यंश्चक्षुः शृण्वंछोत्रं मन्वानोमनस्तान्यस्यैतानि कर्मनामान्येव" इति । तथा च प्राणबदनादिकार्यैः कृत्स्नप्राणवागादित्वेनकस्यैवात्मन् आख्यानात् कथनादपूर्व पूर्व तु पुत्रवित्ताद्यभिमान दशायां "न वा अरे पत्युः कामाय पतिः प्रियो भवति" इत्यादिना यत् प्रियत्वेनोच्यते तस्माद भिन्नमात्मशब्दवाच्यमत्रेत्यर्थः लोकेति प्राणवायुवागिन्द्रियादीनामेव तत्तच्छब्दवाच्यता, न तु जीवस्यात् एवाने श्रुतिराहेश्वरोहि तथा स्यादिति । अतएव प्रेयोऽन्यस्मात् “सर्वस्मादन्तरतरं यदयमात्मा" इत्याह । अन्तरो जीवात्मा ततोऽप्यतिशयेनान्तरमन्तरतरं पुरुषोत्तम स्वरूपमेव भवितुमर्हति । एतेन विग्रहस्यैवात्म रूपत्वं मिद्धयति । तेन अविकृतत्वपरमानंदत्वादयोऽपि धर्माः उपसंहर्त्तव्याः । उक्त संशय पर-"कार्याख्यानादपूर्वम्" सूत्र प्रस्तुत करते हैं, कहते हैं कि-उक्त प्रकरण में उक्त प्रसंग के प्रथम-'प्राणन्नेव प्राणो' इत्यादि में, बोलना देखना सुनना आदि कार्य एक परमात्मा के ही बतलाये गए हैं । इस वाक्य के भी पहिले, पुत्र वित्त आदि को अभिमान दशा में-"अरे पति की कामना से पति प्रिय नहीं होता" इत्यादि से जिस प्रियत्व का उल्लेख किया
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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