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________________ (:: ४.०३ ) न तु पूर्वमित्यर्थः । “स वा एष" इति प्रतिभिज्ञानमिति यदुक्तं, तन्न । “अन्नात् पुरुषः' इति अनेन आधिभौतिक तन्निरूपणात् । ‘स वा एष' इत्यनेन आध्यात्मिक तन्निरूपणादुभयोश्च भेदात् । अत एव संशयाभावायाह-वैनिश्चयेन एष वक्ष्यमाणः पुरुषः स आध्यात्मिकत्वेन "प्रसिद्धोऽन्नरसमयः" इति अन्यथा ब्रह्मात्मकतयोपलक्षण साधनेनाधिकारे संपन्ने 'अन्नं ब्रह्मेति व्यजानात्' इति न वदेत् । न च तदपि तथात्वेन स्तूयत इति वाच्यम् । श्रुतेः प्रतारकत्वापत्तेः । आनंदमयान्तमेव निरूपणाच्च । अत एतस्याऽप्यात्माननिरूपितो यः पूर्वस्येति । सत्वाधिदैविक आनंदमयः । ___ उक्त संशय पर "कार्याख्यानादपूर्वम् ' सूत्र प्रस्तुत करते हैं । पूर्व में अन्न कार्य पुरुष के रूप में जिसका व्याख्यान है उसे ही “स वा एष" इस अग्रिम श्रुति से, ब्रह्मरूप से प्रतिपादन करने के लिए अन्नरूप से बतलाया गया है। पूर्व वस्तु को प्रधानता दिखलाई गई हो सो बात नहीं है । जो यह कहा कि-'स वा एष' पूर्व वस्तु की प्रत्यभिज्ञा ज्ञापन करता है, सो भी गलत है। क्योंकि'अन्नात् पुरुषः' इस वाक्य में आधिभोतिक रूप से निरूपण किया गया है, तया “स व एष" में अध्यात्मक रूप से निरूपण किया गया है, दोनों में भेद है। संशय की निवृत्ति के लिए हो ‘स वा एष' कहकर निश्चयात्मक रूप से पुरुष को पुष्टि की गई, जिसका तात्पर्य ये है कि-आध्यात्मिक रूप से जिसका उल्लेख है वही प्रसिद्ध पुरुष अन्नरसमय है । यदि ऐसे अर्थ से उक्त बात न कही होतो तो, ब्रह्मात्मकतयोपलक्षण साधनाधिकार के संपन्न होने पर "अन्नं ब्रह्मेति व्यंजानात्' इत्यादि न कहते । और न उस रूप में उसको स्तुति का ही उपदेश देते । ऐसा अर्थ नहीं स्त्रोकारते तो, श्रुति छलाव करती है, यही निश्चित होगा ? प्रकरण में अन्त में आनन्दमय का उल्लेख किया गया, उससे भी उक्त बात की हो पुष्टि होती है । जो पूर्व का आत्मा है वही आगे बतलाया गया है, वह आधिदैविक आनन्दमय है । अथवा वाजसने यशाखायामात्मेत्येवोपासीतेत्युपक्रम्य--"तदेतत्प्रेयः पुत्रात् प्रेयोवित्तात् प्रेयोऽन्यस्मात् सब स्मादन्तरतरं यदयमात्मा" इत्येतदग्रेऽन्यस्य प्रियत्वं निर कृत्य-"ईश्वरो हि तथा स्यादात्मानमेव प्रियमुपासीत्" इति पठ्यते । अत्रात्मौपाधिकत्वात् सर्वत्र प्रियत्वस्यात्मपदेन जीवात्मन एव प्रियत्व नोपासनाविधीयते ? उत ईश्वरपदात् परमात्मनः इति भवति संशयः। किमत्र युक्तम् ? जीवात्मन एवं ति, कुतः ? यथा पुत्रादेरात्मोपाधिक प्रियत्वोक्त्या जीवात्मन एव
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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