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इसका भाव है कि श्रुति के प्रमाण से जितना कुछ निश्चित होता है उसी में कहें गए धर्मो की तरह ब्रह्म को मानना चाहिए । इस नियम के अनुसार, जिस अधिकारी की अर्हता के अनुसार जैसा वेद्य रूप है, उसये अनुसार प्रकरण भेद से वैसे ही रूप का निरूपण किया गया है । जैसे कि ज्ञान प्रकरण में ज्ञानाधिकारी के लिए जैसा रूप ज्ञेय है, वैसा ही उसमें निरूपण किया गया है "अदृश्यमग्राह्यम्" इत्यादि । भक्ति प्रकरण में तो भक्ति के अनेक रूप होने से, जैसे- जैसे भक्तों के जैसे-जैसे उनके अनुभव के विषय हैं वैसे-वैसे रूपों के निरूपण अथर्वोषनिषदों में किये गए हैं । उस पर दृष्टान्त देते हैं "परोवरीयस्त्वादिवत् “अस्मिन् में लोके" इत्यादि में आरात्र आवान्तरदीक्षा का उपदेश दिया गया। उसके बाद "परोवरीयसीम" इत्यादि में परोवरीय की अवान्तर दीक्षा की बात कही गई। इस दीक्षा प्रकरण के पाठ से यह निर्णय हुआ कि दीक्षा के विना उक्त रीति के व्रत का परोवरीयत्व नहीं हो सकता, उसी प्रकार भक्ति प्रकरणी अधर्वणोपनिषदों में पठित रूपों की उपासना, बिना भक्ति के संभव नहीं है । ज्ञान के साधन विष्णुस्मरण आदि में, भक्तित्व नहीं है । अथवा पूर्वसूत्र के अनुसार, सब रूपों में आपस में समस्त धर्मों का उपसंहार प्राप्त है ही ।
स चैकान्तिक भक्तानुभव विरुद्ध इत्रत्य व्यवस्थित विकल्पमाह नवेत्यादिना, सर्वेष्ववतारेषु भगवदवतारत्वेन साधारणी भक्तिर्यस्य स सर्वत्रोपसंहारं करोतु नाम । यस्त्वेकान्ती तस्य स्नेहोत्कर्षेणान्तः करणमेकस्मिन्नेव रूपे पर्यवसितमिति रूपान्तरमंतःकरणारूढं न भवेत्येवेति नोपसंहार संभावनापीति । तदेतदुच्यते न वेत्यनेन तत्र हेतुः प्रकरणभेदादिति । श्रुत्यादिषु तत्तदधिकारिणमुदृिश्य तत्तत्प्रकरणमुक्तम् । तेनात्र प्रकरणभेदेन अधिकार उच्यते । एवं सत्युपासकादिभ्य उक्तरीत्योत्कृष्टाधिकारादित्यर्थः संपद्यते । परोवरीयस्त्वादिवदिति, परस्मात्परश्च, वराच्च वरीयानीति परोवरीयांनुद्गीथः । तथाचाक्ष्यादित्यादिगत हिरण्यश्मश्रुत्वादि गुणविशिष्टोपासनाया अप्युद्गीथो पासनात्वेन साम्येऽपि सर्वोत्कृष्टत्वेनैवोद्गीथो भासत इति न हिरण्यश्मश्रुत्वादि गुणोपसंहारः । परोवरीयस्त्वगुणविशिष्टोद्गीथोपासनायामेवं
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प्रकृतेऽपीति ।
जो एक निष्ठ भक्त हैं, उन्हें परस्पर गुणोपसंहार अनुभव विरुद्ध प्रतीत होता हैं । इसपर व्यवस्थित विकल्प उपस्थित करते हैं "न वा" इत्यादि ।