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________________ ( ३६३ ) प्रतिषधाच्च ।३।२।३०॥ एकदेशिमते उपपत्त्यन्तरमाह-एकभेवेत्युक्त्वा पुनरद्वितीयमिति द्वितीयं प्रतिषेधति । स एवकारेणैव सिद्धी कार्यः सन् धर्म निषेधमपि सूचयति । ऐक्षतेति वचनात् तदुत्पत्तिः । चकारादेक विज्ञानेन सर्वविज्ञानोपक्रमः परिगृहीतः। तस्मान्न ब्रह्मणि कश्चित् विरोध इति सिद्धम् । एक देशीय मत से उपपत्ति का प्रकार कहते हैं । "एकमेव" ऐसा निर्देश करके पुनः जो “अद्वितीयम्" कहा गया है उसमें द्वितीय का निषेध है। इसके प्रयुक्त “एव" पद से ही पूर्व सिद्ध मत को व्यर्थता निश्चित होती है, यह पद धर्म निषेध को भी सूचित करता है। "ऐक्षत्" इत्यादि वचन से उत्पत्ति का उल्लेख किया गया है । सूत्रस्थ चकार “एक विज्ञानेन सर्व विज्ञान" की ओर इंगित करता है । इसलिए ब्रह्म में कुछ भी विरुद्धता नहीं है, यह सिद्ध होता परमतः सेतून्मानसम्बन्ध भेदव्यपदेशेभ्यः ।३।२॥३१॥ धर्मि धर्म विरोधः परिहतः । धर्म्यन्तरविरोध परिहारार्थमधिकरण मारभते। तत्र पूर्वपक्षमाह-परमतः, अतोऽपि ब्रह्मणः परमन्यदुत्कृष्टं फलमस्ति तत्र वैदिक हेतवः, सेतून्मान सम्बन्ध भेद व्यपदेशेभ्यः । यद्यपि समन्वय एवैते दोषाः परिहृताः तथापि स्वरूप विरोध परिहार प्रस्तावात् पुनरुच्यन्ते । सर्व वाक्य प्रतिपाद्यमेकमे वेत्यपि न सिद्धम् । एतैर्हेतुभिः परिच्छेदेन धर्मिभेदे सिद्धे, न पूर्वाधिकरण सिद्धान्त विरोधः । धर्मि धर्म के विरोध का परिहार कर चुके अब, धर्म्यन्तर विरोध के परिहार के लिए अधिकरण का प्रारम्भ करते हैं। इसके पूर्वपक्ष को बतलाते हैंसंशय होता है कि जैसे ज्ञय ब्रह्म से उसका फलस्वरूप उत्कृष्ट है, उससे कोई और उत्कृष्ट है या नहीं ?" अक्षरात् परतः परः, पुरुषान्न परं किंचित् सा काष्ठा सा परागतिः" इत्यादि वैदिक व्यपदेश हैं, सेतु आदि के और भी व्यपदेश हैं । यद्यपि इन दोषों का समन्वय करते हुए परिहार किया जा चुका है, फिर भी स्वरूप विरोध परिहार की दृष्टि से इन पर पुनः विचार करते हैं। सभी वाक्य प्रतिपाद्य हैं, सभी एक हैं, ऐसा सिद्ध नहीं किया गया इसलिए
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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