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________________ ( ३६२ ) पूर्ववद वा ।३।२।२६।। एक दैशिक मतेनापि सर्व समाधानमाह अथवा अरूपवदेव हीत्यादि पंचसूत्र्या यः सिद्धान्तः कथितस्तादृशंवा ब्रह्म प्रतिपत्तव्यम् । अयमाशयः, वेदस्थापनार्थ हि प्रवृत्तिः तत्र यथा अक्षरमात्रस्यापि बाथो नभवति तथा वक्तव्यम् । यदर्थमुभय रूपता अंगीकृता तत्र धर्माणां स्वरूपनिर्वाहार्थमवश्यं ब्रह्म वैलक्षण्य मंगीकर्तव्यम् । तथा सति ‘एकमेवाद्वितीयमिति बाधः प्रसज्येत् । तथा चोत्पत्या विचारे निद्धमकमेव पूर्व-ब्रह्मेति प्रतिपत्तव्यम् । उपपत्यापि विचारः पूर्वानुरोधे नैव कर्तव्यः : तत्र धर्माणामापि ब्रह्मत्व 'एक विज्ञानेन सर्व विज्ञानम्'' उपपद्यते, नान्यथा । ततश्च प्रथमं ब्रह्म स्वधर्मरूपेण भवति, तदनुक्रियादिरूपेण च तावतैव सर्ववेदार्थ सिद्धः। न च लौकिकी युक्तिस्तत्रापेक्ष्यते, येन तादृशस्य कथं सर्वभाव इति पयुनुयोगो भवेत् । धर्मकल्पनायामपि नैषा तर्केण मतिरापनेयेति समानम् । उत्पत्या चोपपत्या च विचार द्वयम् । उपपत्या पूर्वनयनं स्वसिद्धान्तः । एक देशिनस्तद् विपरीतम् । उभयमपि सूत्रकारस्य संमतमिति । एक देशीय मत से भी सब समाधान हो जाता है। अथवा "अरूपवदेव" से लेकर 'तदव्यक्तमाह हि" तक पाँच सूत्रों में जो सिद्धान्त कहा गया है, वैसी ही ब्रह्म की प्रतिपत्ति करनी चाहिए। कहने का तात्पर्य यह है किवैदिक मार्ग के स्थापन में ही प्रवृत्ति होनी चाहिए, जिस आशय से ब्रह्म के उभय रूप का वर्णन किया गया है, उनके धर्मों के स्वरूप निर्वाह के लिए ब्रह्म का वैलक्षण्य अवश्य स्वीकारना होगा। वैसा मानने से "एकमेवाद्वितीयम्" वाक्य वाध्य हो जायगा। तथा उत्पत्ति के विचार में, ब्रह्म के प्रर्व रूप को, धर्मरहित ही मानना चाहिए पूर्वानुरोध से ही उपपत्ति का विचार भी करना चाहिए। तभी धर्मों की ब्रह्मता हो सकेगी और तभी “एकविज्ञानेन सर्वविज्ञान' वाली प्रतिज्ञा भी सुसंगत हो सकेगी, अन्यथा असंगत हो जायगी। ब्रह्म का प्राथमिक रूप स्वधर्म समन्वित तथा द्वितीय रूप क्रियात्मक होता है, ऐसा मानने से ही समस्त वेदार्थ संगत हो सकेगा। इस विचार में लौकिक युक्ति से वैसा सर्वभाव नहीं सिद्ध हो सकता जैसा कि श्रुति को अभिप्रेत है। धर्म कल्पना में भी ऐसी युक्तिपूर्ण तर्क मत नहीं लगानी चाहिए। उत्पत्ति और उपपत्ति ये दो विचार इस विषय में करने चाहिए। उपपत्ति से पूर्व नीति का स्वसिद्धान्त निश्चित होता है। एक देशीय मत उससे विपरीत है। उक्त दोनों हो विचार सूत्रकार के संमत हैं ।
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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