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________________ ( ३६० ) होते हैं, जैसे वह कभी लम्बा फैलकर एक आकार का प्रतीत होता है और कभी अनेक लपेटों में विभिन्न आकारों का प्रतीत होता है, वैसे ही ब्रह्म भी, भक्त को कामनानुसार अनेक आकारों में स्फुरित होता है। ये दृष्टान्त, कल्पना शास्त्र और अनेक क्लिष्ट कल्पनाओं का निराकरण करता है, केवल श्रुति से तो शास्त्र कल्पनाओं का निराकरण होता नहीं। इस प्रकार विचार करने से वचन भी सार्थक सिद्ध होता है । इस स्थान पर ही विद्वान मनीपी व्यामोह में पड़ जाते हैं और अनेक काल्पनिक शास्त्रों की रचना कर बैठते हैं । उक्त प्रमाण से निश्चित हुआ कि समस्त विरुद्ध धर्मों के आश्रय भगवान हैं। सही बात तो ये है कि जब श्रुति प्रमाण से समस्या का हल न हो, तब तो युक्ति का सहारा लिया जा सकता है, अन्यथा युक्ति की क्या अपेक्षा है ? प्रायः लोक में भी देखा जाता है कि-एक ही व्यक्ति एक हो समय परिस्थिति वश दया क्रूरता आदि परस्पर विरुद्ध व्यवहार शरीर और मन से करता हैं। फिर भगवान में विरुद्ध ताओं को मानने में कौन-सी अड़चन है, उनमें दोनों बातें विद्यमान है, श्रुति का कथन नितान्त सत्य है। . प्रकाशाश्रयवद्वा तेजस्त्वात् ।३।२।२८॥ धर्मरूप विचारेण पूर्वोक्त पक्ष द्वयं स्थापयितुमधिकरणारम्भः ननु धर्मा नाम के ब्रह्मणे भिन्नास्तत्कार्यरूपा आहोस्वित् ब्रह्मैवेति संशयः ? तत्र लोके कार्यस्यैव पट रूपादेस्तद्धर्मत्वात् समवेतत्वात् तन्नित्यतायां प्रमाणाभावात् स्वाभाविकत्वमात्रण नित्यत्वकल्पनायां गौरवापत्तेः 'एक मेवाद्वितीयम् 'इति श्रुति विरोधाच्च । धर्माः प्रपंचवत् कार्याः। तथासति ब्रह्म सर्वकल्पना रहितमेव सेत्स्यतीत्येवं प्राप्ते इदमुच्यते-'प्रकाशाश्रयवद्वा' शब्द पक्ष व्यावत्तयति, यथा प्रकाशाश्रयाः सूर्योदयः प्रकाशेन न भिन्नाः पृथक् स्थित्यभावात्, समवेतत्वाच्च, मूलविच्छेद रूपेण तदाधारतयास्थितत्वाच्च । नापि सूर्य एव, भिन्न प्रतीतेविद्यमानत्वाच्च, तादृशमेव तद् वस्तूत्पत्ति सिद्धिमिति मंतव्यम् । कल्पनायामपि यथा सूर्यप्रकाशयोः कल्पना एवं ब्रह्म धर्म योरपि न ह्यन्यथा वेदे प्रवृत्ति निषेधशेषता सत्यज्ञानानन्ताऽनद पदानां सामानाधिकरण्यं वा संभवात् । लक्षणायांतु सुतरामेव धर्मापेक्षा । अतो विशिष्ट पदार्थ एव तादृशो वेद सिद्ध इति मंतव्यम् तत्र हेतु: १ तेजस्त्वात्, तेजः शब्द वाच्यत्वात् । बहुदूरव्याप्त्यर्थमेव हेतु रुक्त; आतपादेर्धमत्वेन धर्मित्वेन च प्रतीतेः । अपूर्ववदेव दृष्टत्वात् श्रु तत्वाच्च न धर्म ध्वपि युक्त्यपेक्षा । तस्मात् सिद्धम् यथा श्र तमेव ब्रह्मेति । धर्म के विचार से पूर्वोक्त दोनों पक्षों को स्थापित करने के लिये नया
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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