SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 442
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ३५९ ) अभ्यास से भगवान का अनन्त रूप से आविर्भाव होता है निमित्त भेद से कोई वस्तु प्रतिक्षण रूप नहीं बदलती है, कभी ही भक्त की कामनानुसार निमित्त रूप से प्रतीत होती है । निमित्तभेद से जायमान वस्तु नहीं होती अपितु विग्रह ही होती है (अर्थात् जायमान प्रकाश में विभिन्नता नहीं होती अपितु विग्रहों में विभिन्नता होती है) यही विचार सही है । जैसा कि वर्णन भी है 'जो जिस बुद्धि से परमात्मा की आराधना करता है, उसके प्रणय के अनुसार कृपा करके पर - मात्मा, वैसे ही शरीर धारण करते हैं इसलिए श्रुति और प्रत्यक्ष से उक्त निर्णय हो सकता है इससे, निश्चित होता है कि ब्रह्म, सर्वसाधारण से गोचर नहीं है। उभय ं व्यपदेशात् त्वहिकुण्डलवत् । ३।२२७॥ तु शब्दः पक्षव्यावर्त्तयति । नैवं केवल युक्त्या लोक दृष्टान्तेन निर्णयः शक्यते कत्तु ं, अन्यथेदं शास्त्रं व्यर्थमेव स्यात् । अत्रहि वेदादेव ब्रह्मस्वरूपज्ञानम् ततकथं स्वरूप शत्क्या निर्णयः ? ब्रह्म तूभयरूपम् उभय व्यपदेशात्, उभयरूपेण निर्गुणत्वेनानन्तगुणत्वेन सर्व विरुद्ध धर्मेण रूपेण व्यपदेशात् । तर्हि कथमेकं वस्त्वनेकधा भासते ? तत्राह - अहिकुण्डलवत् यथा सर्प ऋजुरनेकाकारः कुण्डलश्च भवति तथा ब्रह्म स्वरूपं सर्वप्रकारं भक्त च्छया तथा स्फुरति । कल्पनाशास्त्र े हीदं बाधकम् -- अनेक कल्पनागौरवं चेत । न तु केवलं श्रुत्येकसमधिगम्ये । नवशास्त्र वैफल्यम्, एवं साधनार्थत्वात् । अत्र व हि सूरिव्यामोहादन्यशास्त्रोत्पत्ति । अतः सर्वविरुद्ध धर्माणां आश्रयो भगवान न हि प्रमाण दृष्टे अनुपपत्तिरस्ति यदर्थ युक्तयपेक्षा । लोकेऽपि शरीरान्तः करणादीनि परस्पर विरुद्ध दयामारकत्वादीनि विषय भेदेनैकस्मिन् क्षणे प्रतीयन्ते । तस्मात् सकल विरुद्धधर्मा भगवत्येव वर्त्तन्त इति न कापि श्रुति रुपचरितार्थेति सिद्धम् । तु शब्द से उपर्युक्त पक्ष का निरास करते हैं। केवल युक्ति या लोक तसे निर्णय नहीं किया जा सकता । ऐसा करने से शास्त्र वचन विफल हो जावेंगे । वेद से ही ब्रह्म स्वरूप का सही ज्ञान होता है । ब्रह्म दोनों ही प्रकार के रूपों का है, उसके दोनों ही प्रकार के रूपों का स्पष्टोल्लेख है, निर्गुण और अनंत गुण, जोकि परस्पर विरुद्ध है, दोनों ही भगवान् के धर्म कहे गये हैं । एक ही वस्तु अनेक कैसे हैं ? इस पर सूत्रकार कहते हैं- जैसे सर्प के दो रूप
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy