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________________ ३३५ पराभिध्यानात्त तिरोहितं ततोहयस्य बंधविपर्ययौ ।३।२॥५॥ ___किंचिदाशंक्य परिहरति । ननु जीवाय भगवान् सृष्टिं करोति, प्रदर्शयति च स्वस्य सर्वलीलाम् । अंशश्चायम्, कथमस्य दुःखित्वम् ? इत्याशंक्य परिहरति तु शब्दः। अस्य जीवस्यैश्वर्यादि तिरोहितं, तत्र हेतुः पराभिध्यानात्, परस्य भगवतोऽमितो ध्यानं स्वस्यंतस्य च सर्वतो भोगेच्छा, तस्मादीश्वरेच्छया जीवस्य भगवद्धर्म तिरोभावः। ऐश्वर्य तिरोभावाद्दीनत्वं, पराधीनत्वम् । वीर्य तिरोभावात् सर्वदुःखसहनं । यशस्तिरोभवात् सर्वहीनत्वं । श्री तिरोभावाज्जन्मादिसपिविषयत्वं । ज्ञान तिरोभावाद्देहादिष्वहं बुद्धिः सर्वविपरीतज्ञानं चापस्मरसहितस्येव । वैराग्यतिरोभावाद् विषयासक्तिः। बन्धश्चतुणं। कार्यों विपर्ययो द्वयोस्तिरोभाव,देवैवंमन्यथा। युक्तोऽयमर्थः । एकस्यकांश प्राकट्येऽपि तथा भावात् आनंदाँशस्तु पूर्वमेव तिरोहितो, येन जीवभावः । अतएव काममयः । अकामरूपत्वादानन्दस्य । निद्रा च सुतरां तिरोभावकी भगवच्छक्तिः । अतो अस्मिन् प्रस्तावे जीवस्य धर्मतिरोभाव उक्त: । अन्यथा भगवदैश्वर्यादि लीला निविषया स्यात् । तस्मान्न जीव स्वरूपपर्यालोचनया किंचिदाशंकनीयम् । ___ कुछ शंका करते हुए परिहार करते हैं। प्रश्न होता है कि-परमात्मा जीव के लिए सृष्टि करते हैं, या स्वप्न सृष्टि दिखलाते हैं, वह उनकी अपनी लीला का विस्तार ही तो माना गया है, तथा यह सृष्टि परमात्मा का अंश ही तो है, फिर इसमें दुःख प्राप्ति क्यों होती है ? इस संशय का परिहार तु शब्द से करते हुए कहते हैं कि-जीव के दुःख प्राप्ति का कारण, उसमें ऐश्वर्य आदि गुणों का न होना है । इन गुणों के तिरोभाव का कारण है कि परमात्मा का ध्यान छोड़कर जीव इस जगत को हर प्रकार से भोगने की इच्छा करता है। इसलिए ईश्वरेच्छा से जीव के भगवद्धर्मों का तिरोभाव हो जाता है । ऐश्वर्य के तिरोभाव से जीव में दीनता अर्थात् पराधीनता का भाव होता है । वीर्य के तिरोभाव से सारे दुःख सहने पड़ते हैं । यश के तिरोभाव से सर्वहीनता आती है। श्री के तिरोभाव से जन्म आदि समस्त आपत्तियाँ आती हैं । ज्ञान के तिरोभाव से, देह आदि में अहं बुद्धि होती है जिसके फलस्वरूप, सब कुछ विपरीत ही अनुभव होता है तथा सोचता भी विपरीत ही है । वैराग्य के तिरोभाव से विषयासक्ति होती है । ऐश्यादि चारों के तिरोभाव से जीव क बंधन तथा ज्ञान वैराग्य के तिरोभाव विपर्यय होता है । यही अर्थ ठीक है । केवल एक ऐश्वर्य अंश के प्रकट होने मात्र से बन्धन की मुक्ति संभव है । जीव का आनंदांश तो पहिले ही से तिरोहित रहता है, तभी तो उसका जीव भाव होता है।
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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