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________________ ३३३ उसको सत्य तो नहीं कहा गया है। जैसा कि - जगत सृष्टि संबंधी " यदैतदात्म्यमिदं सर्वम्" तत्सत्यम् " आत्मानं स्वयमकुरुत" तत्सत्यमिवाचक्षते" “कथमसतः संज्जायेत्” इत्यादि हजारों श्रुतियों में उसकी सत्यता का स्पष्ट उल्लेख किया गया है, वैसा स्वप्न सृष्टि को बतलाने वाली श्रुति में नही है । स्वप्नसृष्टि में सत्य के प्रयोजन का भी अभाव है, जैसे कि-नट माया से विहार करता है, वैसे ही ईश्वर महामाया का ज्ञाता है अतः वो माया से स्वप्न सृष्टि का विस्तार करता है, अतः उसे सत्य नहीं कह सकते । स्वप्न में जो जीव के विहार की चर्चा की गई वह, ईश्वर के लिए करना असंभव नहीं है । स्वप्न प्रपंच, जगत् प्रपंच से स्वरूप से भिन्न नहीं होता, क्योंकि - दोनों प्रपंचों का उपभोक्ता जीव तो एक ही है । "अविद्यया मन्यते" इत्यादि वचन के अनुसार, स्वप्नसृष्टि में भुक्त सुख दुःखों को भी सत्य नहीं मानना चाहिए । यदि स्वप्न प्रपंच को सत्य मानेंगे तो " तस्य वा एतस्य पुरुषस्य द्वे एव स्थाने भवत् इद च परलोकं स्थानं च" इत्यादि में जो जीव के दो ही स्थान बतलाए गए हैं, उससे विरुद्धता होगी । स्वप्न सृष्टि को सत्य मानना मानो जीव के लिए तृतीय स्थान स्वीकारना है । स्वप्न वर्णन के प्रसंग में आता है कि- "जीवित ही वह अपने को मृत देखता है" इस प्रकार स्वप्न दृष्टा का अपने को दो रूपों में स्वतः देखना भी विलक्षणता का द्योतक है, जो कि इहलोक परलोक उपभोक्ता के लिए केवल मायामात्र तमाशा ही है । दोनों लोकों की प्रतिच्छाया स्वप्न में रहती है तथा माया से क्रीडा होने पर इसमें किसी प्रकार का अनुरोध तो रहता नहीं इसलिए इसमें सुख भी पर्याप्त मिलता है । इसे ईश्वर निर्मित कहा गया, श्रुति के अतिरिक्त इसका कहीं और तो उल्लेख है नहीं तथा इसमें ज्योतिष शास्त्र के नियमानुसार दिन-रात काल ग्रह नक्षत्र की प्रतिच्छाया भी नहीं है, केवल या मायामात्र तो है ही इसलिए इसमें किये गये गुण दोष, जीवात्मा से संबद्ध हो ही कैसे सकते हैं ? अब प्रश्न ये होता है कि यदि स्वप्न मिथ्या वस्तु है तो, स्वप्न में भोजनादि करने पर जो प्रायश्चित्त का विधान शास्त्रों में किया गया है, उसका क्या तात्पर्य है ? इसका उत्तर देते हैं कि यद्यपि वहाँ स्वप्न भोजन नहीं किया जाता फिर भी स्वाप्निक भगवत्क्रीडा में भोजन सदृश सुख जीव अनुभव करता है, इससे उसमें कर्तृत्व का आरोप हो जाता है इसलिए उसके प्रायश्चित्त का विधान किया गया है। जैसे कि ब्रीही के अभाव नीवार से काम चलाया जाता है, वैसे ही इसमें आरोपित कर्तृत्व के कारण अपराध की सिद्धि हो जाती है । स्वप्न कर्त्तव्य शास्त्र मर्यादा में आबद्ध नहीं है, इसलिए वह
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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