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________________ २८४ भेदेन कार्यत्वात् , तथा च साजात्यम् । आनदांशस्य तिरोहितवात् । धर्मान्तरेण तु साजात्यम् इष्टमेव । विपक्षियों का कथन है कि-जीव को अंश मानने से तो ब्रह्म और जीव का जाति संबंध सिद्ध होता है तथा "पुनब्रह्मदाशं" आदि श्रुति से तो, यह भी निश्चित होता है कि सब कुछ ब्रह्म ही है, दाश आदि का ब्रह्मत्व भी निश्चित होता है, ये सब उसी के कार्य हैं, ऐसा प्रतीत होता है। ये अनुमान भी ठीक नहीं, एमं श्रुति में प्रकारान्तर से भी शरीरत्व और अंशत्वरूप से, ब्रह्म के दाश कितवत्व आदि का प्रतिपादन किया गया। स्वरूप से कार्य न होते हुए भी, प्रकार भेद से कार्यत्व और सजातीयत्ब दिखलाया गया है। जब जीव चित्स्वरूप है, इस नाते तो ब्रह्म और जीव का साजात्य संबंध ठीक ही है। मंत्रवर्णात् ॥२॥३॥४४॥ "पुरुष एवेदं सर्वम्" इत्युक्ता “पादोऽस्य विश्वाभूतानि" इति भूतानां जीवानां पादत्वं, पादस्य स्थितत्वेन वा अंशत्वमिति । ___"ये सब कुछ पुरुष है" इसके एक पाद में विश्व के समस्त भूत है" इत्यादि वैदिक मंत्र में, जीवों का पादत्व स्पष्ट कहा गया है, पाद रूप से स्थित होने से अंशत्व निश्चित हो र्जाता है। अपि स्मर्यते ।।४।४५॥ वेदे स्वतंत्रतया उपपाद्य, वेदान्तरेऽपि तस्यार्थस्यानुस्मरणम् । “ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः" इति वेद में तो स्वतंत्र रूप से अंशत्व का उपादान किया ही गया है, वेदो के अतिरिक्त भी उसी अर्थ का अनुसरण किया गया है जैसे कि---"हे पार्थ ! इस जीव लोक में मेरा सनातन अंश ही जीव है" इत्यादि । - प्रकाशादिवन्नैपरः २॥३॥४६॥ जीवस्यांशत्वे हस्तादिवत् तदुखेन परस्यापिदुःखित्वं स्यात् इति चेन्न, एवं परो न भवति, एवमिति प्रकारभेदः, द्विष्ठत्वेनाऽनुभव इति यावत् । अन्यथा सर्वरूपत्वात् कुत एवम् ? तत्राह-प्रकाशादिवत्, नाग्नेहितापो न हिमस्य तत्स्यादिति । प्रकाश ग्रहणं धर्मत्वद्योतनाय । दुःखादयोऽपि ब्रह्मधर्मा इति । अतोद्वैतबुद्धया अंशस्यैवदुःखित्वं, न परस्य । अथवा प्रकाश: प्रकाश्य दोषेण यथा न दुष्टः । पापस्यापि तदंशत्वादिति ।
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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