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________________ २८५ विपक्षी कुतर्क करते हैं कि जीव को अंशत्व माना जाय, तो जैसे शरीर के अंश हस्त आदि के दुःखी होने पर शरीरी को भी दुःख होता है वैसे ही जीव के दुःखी होने पर अंशी परमात्मा भी दुःखी होगा । सो परमात्मा में दुःख की संभावना नहीं है, क्योंकि दोनों में प्रकार भेद है, भेद होने से दुःखानुभव अंशी को नहीं होगा। इस पर भी कहें कि जब परमात्मा ही सर्वरूप है तो ऐसा कैसे न होगा ? इस पर सूत्रकार कहते हैं, प्रकाशादिवतू जैसे कि प्रकाश, प्रकाश्य का ही धर्म है किन्तु प्रकाश की प्रतिक्रिया प्रकाश्य पर नहीं होती वैसे ही अंश की प्रतिक्रिया अंशी पर नहीं होती। अग्नि को स्वयं ताप नहीं होता, हिम को स्वयं शीतानुभव नहीं होता। प्रकाश, प्रकाश्य का धर्म है । दुःख आदि भी परमात्मा के धर्म हैं, ब्रह्म जीव में भेद है इसलिए अंश में ही दुःख होता है, अंशी में नहीं। पाप भी अंश से ही होता है। स्मरंति च ॥२॥३॥४७॥ स्मरंति च ऋषयः । सर्वेऽपि ऋषयोंऽशिनो दुःखा सम्बन्धमंशस्य दुःख संबंध स्मरंति । "तत्र यः परमात्मा हि स नित्यो निगुर्णः स्मृतः, न लिप्यते फलश्चापि पद्मपत्रमिवांमसा" इति । "कर्मात्मा त्वपरो योऽसौ मोक्षबन्धैः स युज्येत, एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा न लिप्यते लोक दुःखेन बाह्यः" चकारात् "तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति" इति । ___ सभी ऋषि अंशी को दुःख से असंबद्ध तथा अंश को दुःख से संबद्ध वर्णन करते हैं जैसे कि- "उन दोनों में जो परमात्मा है वह नित्य निर्गुण है, वह कर्मो के फलों में उसी प्रकार लिप्त नहीं होता जैसे कि कमल पत्र जल से ।" दूसरा जीवात्मा मोक्ष और बन्धन से मुक्त है, एक परमात्मा, समस्त भूतों का अन्तर्यामी होते हुए भी दुःख रहित और अलिप्त है। "तयोरन्यः पिप्पलम्" इत्यादि श्रुति भी ऋषियों के इन वचनों का समर्थन करती है । अनुज्ञा परिहारौ देहसम्बन्धाज्ज्योतिरादिवत् ॥२॥३॥४८॥ ननु जीवस्य भगवदंशत्वे विधि विषय त्वाभावात् कर्म संबन्धाभावेन कथं फल सम्बन्ध : ? जीवस्य च पुनरनेकदेह सम्बन्धात् कः शूद्रः, का भार्येति ज्ञानमप्य शक्यम् ? अतः कर्ममार्गस्य व्याकुलत्वात् कथं जीवस्यापि दुःखित्वम् ? इत्याशंक्य परिहरति । अब प्रश्न होता है कि जीव जब भगवान् का अंश है तो उसमें तो किसी प्रकार के विधि निषेध का प्रश्न हो नहीं सकता देह वस्तु जड़ है उसमें भी ऐसी
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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