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________________ २८३ जीव के ब्रह्मसंबंधी रूप का विवेचन करते हैं। जीव, ब्रह्म का अंश है, वेदांत वाक्यों में परमात्मा के अनेक अंशों का वर्णन है "अच्छे और बुरे आचरणों वाले जीवों में व्याप्त हैं।" इत्यादि __ ननु ब्रह्मणो निरवयवत्वात् कथंजीवस्यांशत्वमिति वाच्यम ? नहि ब्रह्म निरंशं सांशमिति वा क्वाचिल्लोके सिद्धम् । वेदकसमधिगम्यत्वात् । सा च श्रुतिर्ययोपयद्यते तथा तदनुलंघनेन वेदार्थ ज्ञानार्थ युक्तिर्वक्तव्या । सा चेत् स्वयं नावगता, तपोविधेयम् अभिज्ञा वा प्रष्टव्या इति । न तु सर्वविप्लवः कर्तव्यः । विपक्षियों का तर्क है कि-ब्रह्म तो निरवयव है, जीव उसका अंश कैस हो सकता है ? सो उसके निरंश, सांश होने की बात केवल लौकिक बातों से सिद्ध नहीं हो सकती, उसका ज्ञान तो एकमात्र वेदों से ही होता है। वह श्रुति जैसा कहती है, वैसा ही मानना चाहिए, यदि उसके सिद्धान्त में कहीं उलंघन होता हो तो, वेदार्थ ज्ञान के लिए तत्सम्मत युक्ति का आश्रय लिया जा सकता है। वह युक्ति भी मनमानी नहीं होनी चाहिए, उसके लिए तप अपेक्षित है, तप से ही वेदार्थ का सही परिज्ञान संभव है। वेदार्थ के लिए जिज्ञासा होनी चाहिए, अधिकारियों से जाकर पूछना चाहिए, वेदार्थ में, उलट पुलट करना ठीब नहीं। ___तत्रषा युक्तिः-"विस्फुलिंगा इवाग्नेहि जडजीवा विनर्गताः, सर्वतः पाणिपादान्त सर्वतोऽक्षिशिरोमुखात् । निरिन्द्रियात् स्वरूपेणतादृशादिति निश्चयः, संदंशेन जडाः पूर्व चिदंशेनेतरे अपि । अन्यधर्म तिरोभावा मूलेच्छातो स्वतंत्रिणः ।" इति, ब्रह्मवादे अंशपक्ष एव । ___इस विषय में युक्ति ये है कि-"ये सारे जड़ और जीव परमात्मा से ही, अग्नि की चिनगारियों की तरह छिटक कर अलग हुए हैं "सर्वतः पाणिपादान्त सर्वतोक्षिशिरोमुखात्"श्रुति इसी तत्य की पुष्टि कर रही है । निरिन्द्रिय होते हुए भी परमात्मा का सृष्ट हो जाना, उनकी अलौकिकता और भगवत्ता बा सूचक है, उनके सदंश जड पदार्थ हैं तथा चिदंश जीव हैं। परमात्मा की अन्य विशेषतायें जगत में प्रकट नहीं हैं। वह उनकी इच्छा से ही यत्र तत्र प्रकट होती हैं, वे परमात्मा स्वतंत्र हैं।" अत: ब्रह्मवाद में अंशांशीभाव ही है। ननु अंशत्वे सजातीयत्वमायति । श्रुत्यन्तरे "पुनर्गादासा ब्रह्मभेकितवाडत" अत्र सर्वस्यापि ब्रह्म विज्ञानेन विज्ञानं प्रतिज्ञानाद् दाशादीनामपि ब्रह्मत्वं प्रतीयते, तत्कार्यत्व एव स्यादिति चेन्न । अन्यथापि प्रकारान्तरेणापि एके शाखिनो दाशकितवादित्वमधीयते शरीरत्वेनअंशत्वेन च । स्वरूपतः कार्याभावेपि प्रकार
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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