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दशम अधिकरण कठवल्ली में “यदि दं किञ्च जगत सर्व प्राणएजति' इत्यादि में प्राण की महत्ता बतलाई गई है जिससे यह प्राणोपासना का विषय प्रतीत होता है . इस संशय की निवृत्ति कर इसे ब्रह्मोपासना ही सिद्ध करते हैं।
एकादश अधिकरण
छान्दोग्य में 'य एन सम्प्रसादोऽस्माच्छरीरात समुत्थाय पर ज्योतिरनिसंपय्य स्वेन रूपेणा मिनिष्यद्यते" जिस परं ज्योति का वर्णन है वह महाभूत ज्योति का है अथवा परमात्मा का इस संशय पर पूर्वपक्ष का निराकरण करते हुए परमात्म ज्योति की सिद्धि करते हैं।
द्वादश अधिकरण
"आकाशो वै नामरूपयोनिर्विहिता" कह कर छान्दोग्य में आकाश की महत्ता बतलाई गई तो यत भूताकाश की है अथवा परमात्मा को इस, पर पूर्वपक्ष का निराश कर परमात्मा अर्थ की निष्पत्ति करते हैं।
त्र्योदश अधिकरण बृहदारण्यक के ज्योतिर्ब्राह्मण में " याज्ञवल्क्य की ज्योतिरयं पुरुषः" कहते हुये अंतमें कहते हैं "अभयं हमें ब्रह्म भवति व एवं वेद" इस पर स्वभावतः संशय होता है कि तह वाक्य जीव का वर्णन कर रहा है। इस संदेह की सतक निवृति करते हुये इसे ब्रह्म वाक्य ही निणय करते हैं ।
चतुर्थ पाद, प्रथम अधिकरण काठक की श्रुति है --"महतः परमव्यक्रमव्यक्तात्पुरुशः परः" इत्यादि इस पर संशय होता कि इसमें जो महत् अव्यक्त पुरुष आदि शब्दों का उल्लेख है वह सांख्य मत प्रसिद्ध तत्वों का ही है अथवा भिन्न है। इस पर पूंव मत का निराकरण करते हुये निश्चित करते हैं यह मत श्रुति के अपने तत्व हैं सांख्य मत सम्मत तत्व नहीं है।
द्वितीय अधिकरण
श्वेताश्वतरोपनिशद के चतुर्थ अध्याय के 'अजामेसांलोहित शुक्लकृष्णयम्' इत्यादि मंत्र में संख्यमत सम्मत अजा प्रकृति का उल्लेग है अथवा अग्नि