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________________ षष्ठ अधिकरण मुण्डक में 'न तत्र सूर्यों भाति - सर्वतस्यभामा सर्वमिदं विभाति इत्यादि कहकर जिस तेज विशेष का उल्लेख किया गया हैं वह परमात्मा ही है क्योंकि “यस्मिन् द्यौ इत्यादि" दहर वाक्य में सूर्य आदि का आधार परमात्मा को ही कहा गया है, इद वाक्य में भी उस परम तेज के समक्ष सूर्य आदि में स्वत: प्रकाश का निषेध किया है, सूर्य आदि में स्वतः प्रकाश नहीं होता भगवत् प्रकाश से ही वे प्रकाशित होते हैं । सप्तम अधिकरण कठवल्ली में "अंगुष्ठ मात्रः पुरुषो मध्य आत्मनितिष्ठति' कहा गया तथा छान्दोग्य में “यावान् वा आयमाकाशः" कहकर व्यापकता बतलाई गई, इससे ज्ञात होता है कि जो व्यापक है वह अंगुष्ठ मात्र में स्थित नहीं हो सकता ये दोनों भिन्न तत्वों के बोधक वाक्य हैं, अङ्गुष्ठ मात्र परिणाम जीव का ही है, व्यापकता ब्रह्म की । इस पर सिद्धान्त बतलाते हैं कि जीव का हृदय अंगुष्ठ परिमाण का है, उसमें ध्यान की दृष्टि से भगवान की स्थिति बतलाई गयी है फिर भगवान में विरुद्ध धर्म संभव भी हैं अतः दोनों ही वर्णन भगबान के हैं । • अष्टम अधिकरण बह्मविद्या में केवल मनुष्यों का ही अधिकार है या देवताओं आदि का भी है, इस पर पूर्व पक्ष के रूप में केवल मनुष्य के ही अधिकार की चर्चा करके सिद्धान्ततः देवताओं के अधिकार का निर्णय करते हैं। इसी अधिकरण " शब्दः इति चेन्नातः प्रभवात् प्रत्यक्षानुमानाभ्याम्' इस सूत्र के व्याख्यान में समस्त वैदिक पदार्थ आदि दैविक भिन्न है" ऐसा निर्णय करते हुए "अतएव च नित्यत्वम्" सूत्र के व्याख्यान में वेद की नित्यता का प्रतिपादन करते हैं । नवम अधिकरण संवर्ग आदि विद्याओं में शूद्र जाति का अधिकार है या नहीं, इस पर अधिकार है, ऐसा पूर्वपक्ष बतलाते हुए, नहीं है ऐसा सिद्धान्त निश्चित करते हैं । " "स्मृतेश्च" सूत्र के व्याख्यान में शूद्र के लिए वेद श्रवण अध्ययन अर्थज्ञान तीनों का निषेध करते हैं ।
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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