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________________ १६३ श्रवणाध्ययनार्थ प्रतिषेधार्थस्मृतेश्च ॥१॥३॥३८॥ दूरेाधिकार चिन्ता । वेदस्यश्रवणमध्यनमर्थज्ञानं अयमपि तस्य प्रतिषिद्धम् । तत्सन्निधावन्यस्य च । “अथास्य वेदमुपश्रवणतस्त्रपुजतुभ्यां श्रोत्रप्रतिपूरणमिति ।" यद्य वाएतच्छमशानं यच्छूद्रः । तस्माच्छूद्र सामीप्येनाध्येतव्यमिति । उदाहरणे जिह्वाच्छेदो धारणेशरीर भेद इति । दोहादौ शूद्र संबंधे मंत्राणामभाव एव । अधिकार की बात सोची भी नहीं जा सकती । वेद का श्रवण, अध्ययन, अर्थज्ञान आदि सभी का प्रतिषेध किया गया है उनके निकट तक ये सब करने का निषेध है, उनको तो वतलाने का प्रश्न ही नहीं उठता । "उसके वेद सुनने पर उसके कानों को रांगा या लाह गर्म करके भरो" यह शूद्र श्मसान तुल्य है" इसलिए शूद्र के निकट वेदाध्ययन नहीं करना चाहिए "यदि वह वेद पढ़े तो उसकी जिह्वा का छेदन करो, धारण करे तो शरीर भेदन करो" इत्यादि । शूद्र के लिए मंत्रहीन जातकर्म आदि संस्कार का विधान किया गया है। स्मृति प्रयुक्त्यापि वेदार्थे न शूद्राधिकार इत्याह--स्मृतेश्च "वेदाक्षर विचारेण शूद्रः पततितत्क्षणादिति ।" चकारस्त्वधिकरण संपूर्णत्व द्योतकः । स्मार्त पौराणिक ज्ञानादौतुकारणविशेषण शूद्रयोनिगतानां महतामधिकारः । तत्रापि न कर्मातिशूद्राणाम् तस्मान्नास्ति वैदिके क्वचिदपिशूद्राधिकार इतिस्थितम् । स्मृतियाँ भी वैदिक तत्त्व की ही प्रतिपादिका हैं इसलिए उनमें भी शूद्र का अनधिकार कहा गया है जैसा कि--"वेदाक्षर का विचार करने से शूद्र तत्काल पतित हो जाता है" ऐसा स्मृति प्रमाण है। सूत्र में किया गया चकार का प्रयोग अधिकरण समाप्ति का द्योतक है। स्मृति और पौराणिक ज्ञान में, कारण विशेष से शूद्रयोनि में गए हुए महान लोगों को ही, अधिकार दिया गया है कम से शूद्रता को प्राप्त लोगों को भी इसके अधिकार से वंचित रखा गया है । इससे निश्चित होता है- वैदिक वाङमय में शूद्र को किसी प्रकार भी अधिकार नहीं है ।
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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