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________________ १६४ १०. अधिकरणः-- कम्पनात् ॥१॥३॥३६॥ कठवल्ली विचारेण निश्चिता ह्यधिकारिणः वाक्यान्तरं च तत्रत्यंचिन्-यते प्रलयावधि । “यदिदं किंच जगत् सर्व प्राण एजति निःसृतं महद्भयं वज्रमुद्यतं य एतद् विदुरमृतास्ते भवन्ति' इति, अत्र प्राण वज्रोद्यमनशब्दाभ्यां संदेहः- किं प्राणोपासना, इन्द्रोगासना वा, ब्रह्मवाक्यम् वा ? इति । बाधक शब्दस्य श्र तित्वान्न प्रकरणेन निर्णयः । कठवल्ली के आधार पर अधिकारी का निर्णय किया गया, इस विषय पर वाक्य तो अनेक प्रकार के हैं जिनको जीवन पर्यन्त विचार करने पर भी निर्णय करना कठिन है। __जो यह दृष्ट जगत है वह प्राण से संचालित है जो इसे जानता है, उसे महान भयों से यह वज्र उठाकर बचाता है इसे जानने वाला अमृत हो जाता है" इस कठवल्ली के वचन में प्रयुक्त प्राण और वज़ उठाने के वर्णन से संदेह होता है कि इसमें प्राणोपासना है, या इन्द्रोपासना अथवा ब्रह्मोपासना? इसमें श्रति का शब्द ही बाधक हो रहा है इसलिए प्रकरण से निर्णय करना कठिन होगा । "अमृतं वै प्राणाः" इति श्रु ते प्राणोपासकस्यापि अमृत प्राप्तियुज्यते । इन्द्रस्याथमरत्वात् । वज्रमुद्यत मिति प्राणपक्ष वियोजने मरणजनकत्वाद्भयरूपकम् । इन्द्रपक्ष बलाधिष्ठातृत्वात् प्राणत्वम् । तस्मात् प्राण इन्द्रो वा वाक्यार्थः। "अमृतं वै प्राणा:" इस श्र ति से प्राणोपासक की भी अमृत प्राप्ति बतलाई गई है । इन्द्र को भी अमर कहा गया है अतः उसकी उपासना से भी अमृत पाप्ति संभव है। प्राण पक्ष में वज़ उठाने के प्रसंग से, मरणजनक भय से छूटने की बात निश्चित होती है। तथा इन्द्र पक्ष में बल के अधिष्ठाता होने से उसके लिए प्राण शब्द का प्रयोग भी संगत होता है। इससे प्राण और इन्द्र दोनों ही उक्त प्रसंग में उपास्य हो सकते हैं।
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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